हिंदी की ‘पॉश कल्चर’ लेखिका को ‘बुकर’
भारतीय अंग्रेजी लेखक अरविंद अडिग को उनके पहले उपन्यास ‘द व्हाइट टाइगर’ के लिए वर्ष 2008 में यह पुरस्कार मिला था. अरविंद अडिग को उनके पहले उपन्यास द व्हाइट टाइगर के लिए वर्ष 2008 में यह पुरस्कार मिला. उपन्यास की कहानी उसके मुख्य पात्र कोलकाता में बसे बिहार के सहरसा निवासी बलराम हलवाई के आसपास घूमती है, जो गरीबी से छुटकारा पाने का सपना देखता है और यह सपना उसे दिल्ली और बेंगलुरु की यात्रा करा देता है. लेखिका किरण देसाई को अपने दूसरे उपन्यास ‘द इन्हेरिटेंस ऑफ लॉस’ के लिए 2006 में बुकर पुरस्कार मिला था. किरण देसाई भारतीय मूल की जानी-मानी लेखिका अनीता देसाई की पुत्री हैं. किरण देसाई की पहली पुस्तक ‘हल्लाबलू इन द ग्वावा ऑर्चर्ड’ भी काफी चर्चित रही थी. अरुंधती रॉय भारतीय लेखिका अरुंधती रॉय साहित्य जगत में एक बड़ा नाम है. बता दें कि अरुंधती रॉय ने साल 1997 में आई पुस्तक ‘द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स’ के लिए बुकर्स पुरस्कार से सम्मानित किया गया. उनकी ये रचना एक गैर प्रवासी भारतीय लेखक की सबसे अधिक अधिक बिकने वाली किताब थी. जिसके बाद अरुंधति रॉय लेखनी की दुनिया में एक बड़ा नाम बन गईं.
प्रसिद्ध ब्रिटिश भारतीय उपन्यासकार और निबंधकार सलमान रुश्दी को उनकी साल 1981 में सलमान रुश्दी को उनके उपन्यास ‘मिड नाईट चिल्ड्रन’ के लिए बुकर प्राइज से सम्मानित किया जा चुका है. इसके अलावा सलमान रुश्दी को चार बार बुकर प्राइज के लिए नॉमिनेट किया गया है. वहीं उन्हें बुकर ऑफ बुकर्स’ और ‘बेस्ट ऑफ द बुकर’ के लिए सम्मानित किया गया है. साहित्यकार वी.एस नायपॉल भारत में नहीं रहते हैं, लेकिन वह मूल रूप से भारतीय हैं. वी.एस.नायपॉल को साल 1971 में ‘इन अ फ्री स्टेट’ के लिए बुकर पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. उन्हें एक बार दोबारा बुकर पुरस्कार के लिए ‘अ बैंड इन द रिवर’ के लिए शॉर्टलिस्ट किया गया था.
गीतांजलि श्री ने पहले भी कहा था और अंतरराष्ट्रीय बुकर प्राइज मिलने के बाद भी कहा कि असल बात तो तब है जब हम अपने आसपास हिंदी की उन रचनाओं को देखें जो वाकई इस लायक रहीं, लेकिन हमने उन पर कभी ग़ौर नहीं किया. अगर हम ऐसा कर पाते हैं तो मेरा यहां तक पहुंचना सार्थक रहेगा. अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार 2022 मिलने के बाद गीतांजलि श्री ने संक्षिप्त भाषण दिया- मुझसे कहा गया था कि यह लंदन है और मुझे यहां हर तरह से तैयार होकर आना चाहिए. यहां बारिश हो सकती है, बर्फ़ गिर सकती है, बादल भी घिर सकते हैं, धूप भी निकल सकती है. और शायद बुकर भी मिल सकता है. इसलिए मैं तैयार होकर आयी थी पर अब लगा रहा है जैसे मैं तैयार नहीं हूं. बस अभिभूत हूं. ….और तब पूरे हॉल की लाइट उनके और डेज़ी रॉकवेल के चेहरे पर थी. गीतांजलि श्री ने एक पर्चा निकाला और उन तमाम लोगों को धन्यवाद दिया जो ‘रेत समाधि’ की यात्रा में एक ठंडी छांव की तरह उनके साथ रहे. वे काव्यात्मक अंदाज़ में उन्होंने अपनी जीत को नक्षत्रों का ऐसा संयोग बताया, जिसकी आभा से वो चमक उठी हैं. उन्होंने सभी शॉर्टलिस्टेड लेखकों, अनुवादकों के प्रति सम्मान व्यक्त करते हुए ख़ुद को सौभाग्यशाली बताया.
गीतांजलि श्री हिंदी की पहली ऐसी लेखिका हैं जिन्हें अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार मिला है. यह पुरस्कार उनके उपन्यास ‘रेत समाधि’ के अंग्रेज़ी अनुवाद ‘टूंब ऑफ़ सैंड’ के लिए दिया गया. इसका अनुवाद प्रसिद्ध अनुवादक और चित्रकार डेज़ी रॉकवेल ने की है. यह पहला अवसर है कि जब कोई हिंदी रचना बुकर के लिए पहले 135, फिर 6 शॉर्टलिस्टेड और फिर अंतरराष्ट्रीय बुकर से सम्मानित हुई हो. हिंदी के अधिकांश साहित्यकारों का मानना है कि राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित ‘रेत समाधि’ ने ‘टूंब ऑफ़ सैंड’ तक की अपनी यात्रा में हिंदी के फलक को विस्तृत करने का काम किया है. हिंदी के आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने कहा है कि यह हिंदी के लिए बहुत बड़ी घटना है. हिंदी भाषा की जो रचनाधर्मिता है, यह उसका उदाहरण हैं. पूरे देश को इस पर गर्व होना चाहिए और हो रहा है. इस पुरस्कार के बाद जितने रचनाकार हैं, उन्हें एक बल मिलेगा, एक ऊर्जा मिलेगी और अपनी वास्तविक शक्ति के प्रति वे आश्वस्त होंगे. सम्मान किसी रचना को कालजयी और महान तो बनाता ही है लेकिन उससे ज़्यादा उसे महान पाठक बनाते हैं. यह हिंदी की पठनीय रचना तो थी ही, अब सम्मानित भी है.
विकिपीडिया के अनुसार, गीतांजलि श्री का जन्म 12 जून 1957 को मैनपुरी उत्तर प्रदेश में हुई. मूलत: गाजीपुर जनपद की मूलनिवासी गीतांजलि की प्रारंभिक शिक्षा यूपी के विभिन्न शहरों में हुई. वे प्रशासनिक अधिकारी की पुत्री हैं. बाद में उन्होंने लेडी श्रीराम कॉलेज, दिल्ली से स्नातक और जेएनयू से इतिहास में स्नातकोत्तर किया. महाराज सयाजी राव यूनिवर्सिटी, वड़ोदरा से प्रेमचंद और उत्तर भारत के औपनिवेशिक शिक्षित वर्ग विषय पर शोध की उपाधि प्राप्त की. कुछ दिनों तक जामिया मिल्लिया इस्लामिया विवि में अध्यापन के बाद सूरत के सेंटर फॉर सोशल स्टडीज में पोस्ट डॉक्टरल रिसर्च के लिए गई, वहीं रहते हुए उन्होंने कहानियाँ लिखनी शुरू की. मूलत: गीतांजलि पांडे की पहली कहानी ‘बेलपत्र’ 1987 में हंस में प्रकाशित हुई थी. इसके बाद उनकी लगातार दो कहानियाँ हंस में छपी. अब तक उनके 5 उपन्यास- माई, हमारा शहर उस बरस, तिरोहित, खाली जगह, रेत समाधि प्रकाशित हो चुके हैं और 5 कहानी संग्रह- अनुगूंज, वैराग्य, मार्च, माँ और साकूरा, यहाँ हाथी रहते थे और प्रतिनिधि कहानियां प्रकाशित हो चुकी हैं. ‘माई` उपन्यास का अंग्रेजी अनुवाद ‘क्रॉसवर्ड अवार्ड` के लिए नामित अंतिम चार किताबों में शामिल रही. ‘खाली जगह’ का अनुवाद अंग्रेजी, फ्रेंच और जर्मन भाषा में हो चुका है. अपने लेखन में वैचारिक रूप से स्पष्ट और प्रौढ़ अभिव्यिक्ति के जरिए उन्होंने एक विशिष्ट स्थान बनाया है.
गीतांजलि श्री कहती हैं कि हिंदी के रचनाकारों को हमेशा ही लगता रहा है कि उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उचित सम्मान नहीं मिला. कबीर, सूर, मीरा, तुलसी से लेकर प्रेमचंद, अज्ञेय, निराला, मुक्तिबोध जैसे लेखक विश्वस्तरीय हैं, लेकिन उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई ऐसा सम्मान नहीं मिला. यह पहला ऐसा अवसर है, जब हमारी भाषा इस तरह सम्मानित हुई है. कवि-आलोचक अशोक वाजपेई भी ऐसा ही मानते हैं. वे कहते है- हिंदी को ऐसी अंतरराष्ट्रीय मान्यता पहले कभी नहीं मिली. कृष्ण बलदेव वैद, कृष्णा सोबती, अज्ञेय, अश्क़ इत्यादि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त हैं, लेकिन हमारे जीवित रहते किसी को यह पुरस्कार मिलते देखने बहुत बड़ी बात है.
वरिष्ठ कथाकार मैत्रेयी पुष्पा का मानना है कि यह सच है, जो हुआ है वो अब तक नहीं हुआ था लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि यह मूल कृति की जगह अनूदित कृति को दिया गया पुरस्कार है. वे कहती हैं- अगर अंग्रेज़ी में अनुवाद न हुआ होता तो क्या ‘रेत समाधि’ की उतनी ही चर्चा होती जितनी आज हो रही है. जहां पुरस्कार मिला वो अंग्रेज़ी का माहौल है क्योंकि यह पुरस्कार अंग्रेज़ी अनुवाद पर ही निर्भर करता है. लेकिन इन सबके बावजूद यह हिंदी के लिए बड़ी घटना माना जा रहा है क्योंकि यहां अंग्रेज़ी का वर्चस्व काम कर रहा है. वहीं चित्रा मुद्गल कहती हैं- हमें अनुवाद बनाम मूल कृति के विवाद में नहीं पड़ना चाहिए. यह हिंदी और भारतीय भाषाओं के लिए गौरवशाली क्षण है और मैं इसे पूरी तरह हिंदी का सम्मान मानती हूं क्योंकि कृति पहले आती है और अनुवाद बाद में. वे कहती हैं कि यह इतना गौरवान्वित करने वाला क्षण है, लग रहा है जैसे गीतांजलि के बहाने हम सभी सम्मानित हो रहे हैं.
गीतांजलि श्री पिछले तीन दशक से लेखन की दुनिया में सक्रिय हैं. उनका पहला उपन्यास ‘माई’ और फिर ‘हमारा शहर उस बरस’ 1990 के दशक में प्रकाशित हुए, फिर ‘तिरोहित’ आया और फिर आया ‘खाली जगह’. उनकी कई कहानी संग्रह भी प्रकाशित हैं. वो स्त्री मन में, समाज के भीतर, समाज की परतों में बहुत धीरे-धीरे दाखिल होती हैं और बहुत संभलकर उन्हें खोलती और समझती हैं. कवयित्री अनामिका ने बीबीसी को बताया- गीतांजलि की सबसे बड़ी ताक़त है कि वो ‘माई’ जैसे उपन्यास में ग्रामीण और कस्बाई जैसे परिवेश की कश्मकश सामने रखती हैं फिर ‘तिरोहित’ में मनोवैज्ञानिक स्तर पर उतरती हैं, ‘हमारा शहर उस बरस’ में बाबरी के माध्यम से राजनीतिक तनावों पर डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म की तरह पाठ तैयार करती हैं और ‘रेत समाधि’ में वृद्ध स्त्री के ज़रिये बुढ़ापे का ठस्सा और युग का प्रतिनिधित्व करवाती हैं. कह सकते हैं कि गीतांजलि के कथानक की स्त्रियां पूरे हिंदुस्तान की स्त्रियों की अव्यक्त इच्छाओं का दस्तावेज़ हैं. वहीं रेत समाधि के बारे में अनामिका ने गीतांजलि से कहा था कि आपके इस उपन्यास में सब कुछ है. जैसे स्त्री है, स्त्रियों का मन है, पुरुष है, थर्ड जेंडर है, प्रेम है, नाते हैं, समय है, समय को बांधने वाली छड़ी है, अविभाजित भारत है, विभाजन के बाद की तस्वीर है, जीवन का अंतिम चरण है, उस चरण में अनिच्छा से लेकर इच्छा का संचार है, मनोविज्ञान है, सरहद है, कौवे हैं, हास्य है, बहुत लंबे वाक्य हैं, बहुत छोटे वाक्य हैं, जीवन है, मृत्यु है और विमर्श है जो बहुत गहरा है, जो बातों का सच है. जीवन की पूरी कहानी है.
मूलत: हिंदी उपन्यासकार गीतांजलि श्री का मानना है कि जो भी हम महसूस करते हैं, वह सब एक कहानी है. यह सांस की तरह स्वाभाविक है. हाँ, उन पर कृष्णा सोबती और निर्मल वर्मा की छाया की बात कही जाती है, जिसे वो सकारात्मक तरह से लेती हैं, लेकिन उनका हमेशा मानना रहा है कि किसी से प्रेरित होने के बाद अपना अलग स्वर बनाना बहुत ज़रूरी है. शायद उन्होंने बनाया भी है. जब उन्हें बुकर मिला तो मंच से गीतांजलि श्री ने हिंदी की समृद्ध साहित्यिक परंपरा की बात ज़ोर देकर कहा कि जब किसी भाषा का साहित्य दूसरी भाषा तक जाता है तो जीवन का व्याकरण समृद्ध हो जाता है. इस समृद्ध व्याकरण के पीछे डेज़ी रॉकवेल हैं. वह मानती हैं कि डेज़ी रॉकवेल के बिना यह सफर पूरा नहीं सकता था, जो सच भी है. उन्होंने बुकर पुरस्कार समारोह में अनुवादक डेज़ी रॉकवेल के साथ-साथ अपने उस फ्रेंच अनुवादक मित्र का भी धन्यवाद किया, जिसने सबसे पहले रेत समाधि का फ्रेंच भाषा में अनुवाद किया था. तभी तो बुकर पुरस्कार के निर्णायक मंडल प्रमुख फ़्रैंक वेन जब पुरस्कार की घोषणा कर रहे थे, तो उन्होंने अनुवादक और लेखक के रिश्ते को कई वाक्यों में पिरोया. उन्होंने कहा कि साहित्य को आप सीमाओं में नहीं बांध सकते. लेखक कहानी कहते हैं लेकिन अनुवादक उसे सीमाओं से परे ले जाते हैं. लेखक राष्ट्रीय साहित्य रचते हैं और अनुवादक वैश्विक स्तर पर सोचते हैं.
हिंदी भाषा के उपन्यास रेत समाधि को वैश्विक स्तर पर ले जाने का काम निःसंदेह इसकी अनुवादक डेज़ी रॉकवेल ने किया है. कवयित्री अनामिका इसे रेत समाधि के कथानक की तरह सरहदों का हाथ मिलाना बताती हैं. उन्होंने कहा- अनुवादक और रचनाकार के लिए एक दूसरे के भीतर उतरना आसान नहीं होता. विशेषकर जब स्त्री से जुड़ा कथानक केंद्र में हो. अंग्रेज़ी हिंदी की तरह खेलती हुई भाषा नहीं है, वो हमेशा से औपनिवेशिक शासन की भाषा रही है लेकिन डेज़ी ने जिस तरह अनुवाद किया वो चौंकाता है.
ध्यातव्य है, गीतांजलि श्री ने बीबीसी से बातचीत में कहा था कि वह डेज़ी रॉकवेल को व्यक्तिगत रूप से पहले से नहीं जानती थी, लेकिन जब ईमेल के ज़रिए डेज़ी ने उनके उपन्यास के कुछ अंश अनूदित करके भेजे तो उन्हें उसमें वो छवियां भी दिखाई दीं, जो शायद उन्हें अपनी मूल कृति में खोजनी पड़ती. अनूदित उपन्यास ‘टूंब ऑफ़ सैंड’ नाम से ‘रेत समाधि’ के अनुवाद को ‘टिल्टेड एक्सिस’ ने प्रकाशित किया है. अमेरिका में रहने वाली डेज़ी हिंदी साहित्य समेत कई भाषाओं और उसके साहित्य पर पकड़ रखती हैं. उन्होंने अपनी पीएचडी उपेंद्रनाथ अश्क के उपन्यास ‘गिरती दीवारें’ पर की है. उन्होंने उपेंद्रनाथ अश्क से लेकर खादीजा मस्तूर, भीष्म साहनी, उषा प्रियंवदा और कृष्णा सोबती के उपन्यासों का अनुवाद किया है.
हिंदी साहित्यिक दुनिया से जुड़े कई लोग मानते हैं कि हिंदी साहित्यिक दुनिया में बदलाव की बात होती है, फिर खो जाती है. यह सिलसिला चलता रहता है लेकिन जो नहीं होता वो है अनुवादकों पर विचार. आमतौर पर हिंदी में अनुवादकों के प्रति रवैया बहुत अच्छा नहीं है. उम्मीद है कि बुकर के बाद शायद कुछ बदलाव दिखे और शायद युवाओं को हिंदी साहित्य आकर्षित कर सके. रेत समाधि के हिंदी प्रकाशक राजकमल प्रकाशन कहते हैं कि इस परिघटना से हिंदी की युवा और युवतर पीढ़ी अपनी भाषा की साहित्यिक समृद्धि से नए सिरे से परिचित होगी. अनुवाद के मुद्दे पर उसने कहा कि अनुवाद के नाम पर केवल पुरस्कार देने भर से अनुवादक की गरिमा और अनुवाद की गुणवत्ता नहीं बढ़ेगी बल्कि अनुवादक को लेखक के बराबर समझने से स्थिति में बदलाव आएगा. इसमें हिंदी मीडिया और समाज को साथ आना होगा.
वहीं लेखिका चित्रा मुद्गल भी मानती हैं कि जिस तरह से गीतांजलि श्री के साथ डेज़ी रॉकवेल का नाम जुड़ गया है और बुकर में दोनों को बराबर का हक़ मिला है, ऐसे ही कदम भारत में अकादमी और प्रकाशकों को उठाने चाहिए, जिसमें बराबरी का सम्मान हो, फिर चाहे कवर पर अनुवादक का नाम हो या बेहतर पारिश्रमिक. इन सबके बीच ऐसे बहुत से कमेंट्स पढ़ने में आ रहे हैं जहाँ 1913 में रवीन्द्रनाथ टैगोर की गीतांजलि के बाद लगभग 110 साल बाद गीतांजलि श्री को इस तरह से ख्याति मिलने की बात कही जा रही है. यह थोड़ा अतिशयोक्ति लग सकता है लेकिन जब-जब कहीं पहला मौक़ा आता है, ऐसी बातें उठती हैं. भारतीय भाषाओं के साहित्य में भी ऐसे अवसर कम ही आए, जब उत्सव मनता दिखा हो, फिर हिंदी में तो यह पहला अवसर है.
गीतांजलि श्री को मील का पत्थर बननी है और लंबी रेखा खींचनी है. इंतज़ार है अब नोबेल साहित्य पुरस्कार भी वे ही दिलाये. अनगिनत सादर शुभकामनाएं.