लघुकथा

हवन

आज कुँवर साहब की शादी के रजत-जयंती वर्ष पर भव्य आयोजन था। निवास सजावट और रोशनी से जगमगा रहा था। संध्या को भव्य यज्ञ के अनुष्ठान के बाद नगर के प्रतिष्ठित परिचितों के लिए स्वादिष्ट प्रीतिभोज की व्यवस्था की गयी थी। यज्ञ के आयोजन का सेतु था कि उससे उठनेवाले धुएँ से घर का कोना-कोना पवित्र होगा। पुरोहित जी ने यही आश्वासन कुँवर साहब को दिया था। जिसके लिए गृहशांति के लिए हजारों की राशि स्वाहा की जा रही थी। कुँवर साहब और सेठानी को उम्मीद थी कि विवाह के पच्चीसवें वर्ष पर अनुष्ठान कर उनका दांपत्य अगले वर्षों के लिए स्वस्थ पुनर्जीवन प्राप्त कर लेगा। आज सेनानी का सिंगार अद्भुत था। प्रौढ़ा पर कुमारिका दिखने का भूत सवार था। सोलह सिंगार देह पर भारी पड़ रहा था। प्रौढ़ दंपत्ती, नव वर-वधू का अभिनय कर रहे थे और उनकी युवा संताने यह देखकर आह्लादित थी। नियत समय पर अनुष्ठान आरंभ हुआ। लगातार दो घंटे तक यज्ञ वेदिका की ज्वाला जीभ लपलपाकर पुरोहित के मंत्रोच्चार की समाप्ति पर स्वाहा के घोष के साथ हविष्य को निगलकर नाचती रही। यज्ञ सफल हो रहा था। वेदी से उठनेवाले धुएँ ने घर के कोने को पवित्र करना आरंभ कर दिया था। हवा का झोंका बूढ़ी अम्मा के कमरे को भी पवित्र करने गया। पवित्रता के धुएँ  ने प्रभाव दिखाया बीमार बूढ़िया को खाँसी के दौरा आया। डॉक्टर ने शीघ्र आँखों के उपचार की सलाह दी थी। लेकिन अभी रजत-जयंती का बड़ा खर्च था। कुँवर साहब ने आँखों के उपचार को तगड़ी आमदनी तक के लिए भविष्य के लिए टाल दिया गया था। माता जी ने टटोलकर लाठी उठायी। कोठरी के बाहर खुली हवा में आना चाहती थी। लेकिन आँखों की बचीकुची रोशनी यज्ञ का धुआँ छीन चुका था। बड़ी मुश्किल से दरवाजा खोलकर निकली। अंधी सीढ़ी पर से फिसलकर लुढ़कती हुई कटे पेड़ के समान धरती पर आ गयी। उधर यज्ञ की ज्वाला लपलपा रही थी। इधर हवन से उठनेवाले धुएँ से अम्मा की जीवन ज्योत शांत हो गयी थी।

— शरद सुनेरी