कविता

अपरिभाषित

पारदर्शी जैसे ओस की बूंद सी
सिहरती सर्द में गुनगुनी धूप सी
जज्ब हो जाती हो मुझ में इस तरह
ग्रीष्म से तृषित धरा पे वर्षा की बूंद सीI

कैसे हो तुम शब्दों में परिभाषित
गुजरे तो जर्रा जर्रा होता सुवासित
हंसे तो बिखरे जैसे सीप से मोती
देखकर होता तन मन आह्लादितI

अब तेरे ही ख्वाब मैं  रहता हूँ बुन
आवाज अब मेरे दिल की तू सुन
आ जाना हमदम अब तू भी इस तरह
जैसे आती है राधा मुरली की सुन के धुनI

— सविता सिंह मीरा

सविता सिंह 'मीरा'

जन्म तिथि -23 सितंबर शिक्षा- स्नातकोत्तर साहित्यिक गतिविधियां - विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित व्यवसाय - निजी संस्थान में कार्यरत झारखंड जमशेदपुर संपर्क संख्या - 9430776517 ई - मेल - [email protected]