अपरिभाषित
पारदर्शी जैसे ओस की बूंद सी
सिहरती सर्द में गुनगुनी धूप सी
जज्ब हो जाती हो मुझ में इस तरह
ग्रीष्म से तृषित धरा पे वर्षा की बूंद सीI
कैसे हो तुम शब्दों में परिभाषित
गुजरे तो जर्रा जर्रा होता सुवासित
हंसे तो बिखरे जैसे सीप से मोती
देखकर होता तन मन आह्लादितI
अब तेरे ही ख्वाब मैं रहता हूँ बुन
आवाज अब मेरे दिल की तू सुन
आ जाना हमदम अब तू भी इस तरह
जैसे आती है राधा मुरली की सुन के धुनI
— सविता सिंह मीरा