लघुकथा – एक मां का इंतजार
जीवी मां ने बड़े दुःख सह कर मोहन को पढ़ाया था।20 साल की उम्र में मोहन के बापू की मृत्यु हो गई थी तब मोहन सिर्फ 2 साल का था।घर में 10 लोगों का खाना बनाना घरका सारा काम करना, गायों की सेवा चकरी करना, दूध दोहना आदि कामों में व्यस्त रहती थी।खुद तो अनपढ़ थी लेकिन मोहन की पढ़ाई तरीके से हो उसका पूरा ध्यान रखती थी।उसका देवर पढ़ा लिखा था तो वह मोहन को पाठशाला से मिला घरकाम करवाएं उसका ध्यान रखती थी।मोहन ने मैट्रिक पास करली तो उसे शहर के कॉलेज में भी पढ़ाया और उसकी वहीं नौकरी लग गई ।जब बेटा शहर गया तो उसकी एक आंख बेटे की प्रगति देख हंस रही थी तो उसके विरह में दूजी आंख रो रही थी।बरसों बीत गए और उसने शादी उधर ही करली,उसके दो बच्चे भी हो गाएं ।पहले साल में अकाद बार मां से मिल जाता था लेकिन धीरे धीरे वह भी बंद हो गया। अब जीवी की तबियत भी ठीक नहीं रहती थी और फिर डॉक्टर ने भी जवाब दे दिया कि पता नहीं कितने दिन हैं उसके पास।
एक सुबह सब उठे ही थे तो देखते क्या,उसकी दरवाजे की और देख रही आंखों में जान नहीं थी,बेटे या इंतजार करते करते वह चल बसी थी।
— जयश्री बिरमी