भाषा-साहित्य

जनभाषा में न्याय की गूँज

विश्व के स्वाधीन व लोकतांत्रिक देशों में शायद ही ऐसा कोई देश होगा जहाँ के उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय में वहाँ की भाषा में न्याय न मिलता हो। अगर भारत का इतिहास उठाकर देखें तो शायद ही कोई ऐसा समय रहा होगा जब देश में या किसी प्रदेश में लोगों को अपनी भाषा में न्याय न मिलता हो। स्वतंत्रतापूर्व जब भारत अंग्रेजी उपनिवेश था तो उस समय भी यह प्रश्न उठा था कि क्या जनता को न्याय देने वाले की भाषा आनी चाहिए या न्याय देने वाले को जनता की ? तब भी इस संबंध में गठित समिति ने जनभाषा का ही पक्ष लिया था।
आश्चर्य की बात यह है कि स्वाधीनता के 75 वर्ष बाद जबकि भारत अपनी आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है तब भी देश में न्याय के क्षेत्र में उस भाषा का वर्चस्व बना हुआ है औपनिवेशिक पराधीनता की भाषा है और जिसे जानने वालों की आबादी आज भी चार-पांच प्रतिशत से अधिक नहीं है। उच्चतम न्यायालय में तो केवल अंग्रेजी का ही एकाधिकार है और उच्च न्यायालय में भी लगभग वही स्थिति है। बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और राजस्थान को छोड़कर अन्य किसी भी राज्य में संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद भी राज्य की राजभाषा तक में न्याय दिए जाने का प्रावधान नहीं हुआ है। यहाँ तक कि इन राज्यों से अलग हुए राज्यों, झारखंड, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ में जहाँ इन राज्यों की भाषा के अनुरूप हिंदी उच्च न्यायालयों की भाषा होनी चाहिए थी, वहाँ भी ऐसा नहीं हुआ।

अंग्रेजी न जाननेवालों की बात छोड़िए, जो लोग अंग्रेजी जानते भी हैं, वे किस हद तक अंग्रेजी में अपनी बात रख सकते हैं या उसे समझ सकते हैं? यह भी एक विचारणीय प्रश्न है। न्याय क्षेत्र से जुड़े अनेक लोग अच्छी तरह जानते हैं कि आज भी उच्च न्यायालय तक में अनेक वकील भी अपने वादी का पक्ष रखते हुए बहुत अच्छी अंग्रेजी नहीं बोल पाते। लेकिन इस सब के बावजूद संविधान का अनुच्छेद 348 अंग्रेजी के संरक्षक के रूप में अंग्रेजी का बचाव और जनभाषा की उपेक्षा करता दिखाई देता है।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि इससे बढ़कर जुल्म क्या हो सकता है कि मुझे अपने देश में इंसाफ पाने के लिए भी अंग्रेजी की मदद लेनी पड़े। यह प्रश्न सदा से उठता रहा है कि भारत में यह ऐसी कैसी न्याय व्यवस्था है जहाँ जनता को केवल अंग्रेजी न आने के कारण अनपढ़ व्यक्ति की तरह वकील द्वारा तैयार किए कागजों पर अंगूठा छाप की तरह हस्ताक्षर करने पड़ें। उसे पता ही न लगे कि जिस कागज पर वह हस्ताक्षर कर रहा है उसमें आखिर लिखा क्या है ? अदालत में बहस हो रही है और पक्ष तथा विपक्ष के वकील आपस में जिरह कर रहे हैं या न्यायाधीश उनसे कुछ प्रश्न पूछ रहा है लेकिन वादी को या प्रतिवादी को कुछ समझ नहीं आता। न्याय की आशा में न्यायालयों में जाने वाला एक आम आदमी किस प्रकार बेबस और लाचार होता है? ऐसा भी अनेक बार होता है कि अंग्रेजी भाषा के ज्ञान के अभाव में हर स्तर पर उसके साथ धोखाधड़ी होती है। जनता को जनभाषा में न्याय ही न मिले, अदालत में उसके साथ क्या हो रहा है उसे पता ही न चले। कौन कब कहाँ उसे धोखा दे रहा है, कहां क्या हो रहा है? इन सब बातों से अनभिज्ञ एक सामान्य नागरिक के साथ अंग्रेजी भाषा की न्याय व्यवस्था न्याय है या अन्याय? इस पर विचार किए जाने की आवश्यकता है।

जब कभी जनभाषा में न्याय का मामला सामने आता है तो अक्सर यह दलील देकर मामले से पल्ला झाड़ लिया जाता है कि उच्च न्यायालयों में अन्य राज्यों के न्यायाधीश भी आते हैं इसलिए ऐसे में किसी उच्च न्यायालय में राज्य की भाषा में न्याय देना संभव नहीं है। ऐसी ही बात उच्चतम न्यायालय के लिए भी कही जाती है। प्रश्न तो आज भी वही है जो अंग्रेजों के समय था कि क्या न्यायाधीश की भाषा जनता को सीखनी चाहिए या न्यायाधीश को जनता की भाषा?

पिछले महीने मुंबई में ‘वैश्विक हिंदी सम्मेलन’ तथा ‘जनता की आवाज फाउंडेशन’ द्वारा ‘जनभाषा में न्याय’ विषय पर एक संगोष्ठी का आयोजन किया गया जिसमें मुंबई उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री राजन कोचर और इलाहाबाद उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता प्रदीप कुमार, पटना उच्च न्यायालय के अधिवक्ता इंद्रदेव प्रसाद, मुंबई उच्च न्यायालय के अधिवक्ता संतोष तथा चंडीगढ़ उच्च न्यायालय के अधिवक्ता नवीन कौशिक के अलावा भाषा सेनानी हरपाल सिंह राणा जैसे वक्ताओं ने जन भाषा में न्याय को लेकर अपने विचार रखे। यह सभी अधिवक्ता और भाषा सेनानी वे हैं जो न्यायालयों में जनभाषा में न्याय के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

उस संगोष्ठी में स्वभाविक रूप से विषय प्रवर्तक के रूप में मैंने यह सवाल खड़े किए कि जनतंत्र के लिए जनभाषा आवश्यक है तो क्या न्यायपालिका जनतंत्र से ऊपर है? संविधान के अनुच्छेद 343 के अनुसार भारत संघ की राजभाषा हिंदी है और न्यायपालिका संघ का घटक है तो क्या न्यायपालिका संघ से भी ऊपर है? संविधान के अनुच्छेद 345 के अनुसार कोई भी राज्य विधि द्वारा उप बंद करके अपने राज्य की राजभाषा या राजभाषाओं का उपबंध कर सकता है । राज्य के उच्च न्यायालय पर राज्य की राजभाषा का उपबंध भी लागू नहीं होता। क्या न्यायपालिका संविधान के अनुच्छेद 345 के भी ऊपर है ?

संविधान का अनुच्छेद 350 कहता है कि प्रत्येक व्यक्ति किसी व्यथा के निवारण के लिए संघ या राज्य के किसी अधिकारी या प्राधिकारी को, यथास्थिति, संघ में या राज्य में प्रयोग होने वाली किसी भाषा में अभ्यावेदन देने का हकदार होगा। तो क्या उच्च न्यायालय संघ या राज्य के प्राधिकारी नहीं ? तो क्या अनुच्छेद 348 के प्रावधान अनुच्छेद 350 के प्रतिकूल नहीं? इसी प्रकार संविधान का अनुच्छेद 351 संघ को हिंदी भाषा के प्रयोग और विकास का निर्देश देता है, लेकिन न्यायपालिका का इस से भी कोई सरोकार नजर नहीं आता। हर बार ले देकर संविधान के अनुच्छेद 348 की दुहाई दी जाती है। उसमें यह कहा गया है कि सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों की भाषा अंग्रेजी होगी ।

संविधान के अनुच्छेद 348 में कहा गया है कि किसी राज्य का राज्यपाल राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से उस उच्च न्यायालय की कार्यवाहियों में, जिसका मुख्‍य स्थान उस राज्य में है, हिन्दी भाषा का या उस राज्य के शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाली किसी अन्य भाषा का प्रयोग प्राधिकृत कर सकेगा। जिसके अनुसार बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और राजस्थान इन चार राज्यों में हिंदी के प्रयोग की व्यवस्था है। लेकिन 4 राज्यों को छोड़कर किसी भी राज्य उच्च न्यायालय में ऐसी व्यवस्था नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि अन्य किसी राज्य ने अपने उच्च न्यायालय में राज्य की जनभाषा में न्याय की मांग की हो। लेकिन फिर भी तमिलनाडु, गुजरात और बंगाल जैसे कई राज्यों द्वारा राष्ट्रपति जी को भेजे गए प्रस्ताव के बावजूद राष्ट्रपति जी की अनुमति नहीं मिल सकी। 1965 के मंत्रिमंडल के निर्णय से इस मामले में उच्चतम न्यायालय की सहमति लेना आवश्यक कर दिया गया। सब समझते हैं कि न्यायपालिका पर अंग्रेजी हावी है। इसलिए जब यह मामला उच्चतम न्यायालय की सहमति के लिए गया तो उसने सहमति नहीं दी। यानी एक मंत्रिमंडलीय निर्णय के माध्यम से जनभाषा में न्याय के मार्ग को बाधित कर दिया गया।

भारत में अंग्रेजी के वर्चस्व और अंग्रेजी व्यवस्था का सबसे बड़ा पोषक संविधान का अनुच्छेद 348 ही है। हर विषय कहीं न कहीं न्यायतंत्र से जुड़ता है और न्याय तंत्र में निचले स्तर पर भी और उच्च स्तर पर पूरी तरह अंग्रेजी का वर्चस्व होने के कारण व्यवस्था राज्य या संघ की राजभाषा के बजाय काफी हद तक अंग्रेजी का प्रयोग करने के लिए विवश हो जाती है।

मुझे लगता है कि यहां न्यायाधीशों और वकीलों आदि सहित पूरे न्यायतंत्र को दोष देने का कोई कारण नहीं है। क्योंकि उन्हें तो संविधान की व्यवस्था के अनुसार ही चलना होता है। इस विषय पर बोलते हुए न्यायमूर्ति राजन कोचर ने कहा, ‘यह बात न्यायाधीशों को कहने का क्या मतलब? न्यायाधीशों को तो संविधान के अनुसार ही चलना है। संविधान का अनुच्छेद 348 है तो है। उसमें अंग्रेजी के प्रयोग का प्रावधान है तो है। यदि हम उसके प्रतिकूल किसी अन्य भाषा का प्रयोग करेंगे तो यह आरोप लगेगा कि हम संविधान की अवहेलना कर रहे हैं। अगर जनभाषा में न्याय का उपबंध अगर किसी को करना है तो वह न्यायपालिका को नहीं विधायिका को करना है।’ आगे उन्होंने यह भी कहा, ‘जब सरकार संविधान का अनुच्छेद 370 हटा सकती है तो फिर सरकार संविधान के अनुच्छेद 348 में संशोधन क्यों नहीं कर सकती ?’ उनकी बात अपनी जगह पूरी तरह न्यायोचित थी।

माननीय न्यायमूर्ति राजन कोचर और विभिन्न राज्यों से जनभाषा में न्याय के लिए संघर्षरत अधिवक्ताओं की बात देशभर में गूंजी। मीडिया ने भी इन वक्तव्यों को महत्वपूर्ण स्थान दिया। और फिर वह हो गया जो पिछले 75 साल में न हुआ था। उसी महीने यानी 30 अप्रैल – 2022 को ही दिल्ली में आयोजित मुख्यमंत्रियों और राज्य के उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन में उच्चतम न्यायालय, जिस पर अक्सर जनभाषा के प्रतिकूल होने के आरोप लगते रहे हैं, उसके मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एन.वी. रमन ने ही जनभाषा में न्याय की पैरवी कर दी। फिर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी जनभाषा में न्याय के लिए आवश्यक कदम उठाने की बात कही। इस विषय को लेकर समाचारपत्रों आदि में बहस भी छिड़ गई। अनेक समाचार पत्रों ने इस विषय पर अनेक आलेख प्रकाशित किए हैं। और आज एक बार फिर जन भाषा में न्याय का मुद्दा राष्ट्रीय मुद्दा बन गया है। एक बार फिर आम आदमी की आंखों में आशा है कि आज नहीं तो कल उसे अपनी भाषा में न्याय मिल सकेगा।

अब आखिरी प्रश्न यह बचता है कि आखिर न्यायपालिका में संघ और राज्य की भाषा में न्याय की व्यवस्था किस प्रकार की जाए ? इस संबंध में मेरा मत स्पष्ट मत है कि जिस प्रकार भारत की प्रशासन व्यवस्था में भारतीय प्रशासनिक सेवा का यानी आई.ए.एस. अधिकारी, भारतीय पुलिस सेवा यानी आई.पी.एस अधिकारी आदि भले ही किसी भी राज्य के हों उनके लिए अपने संवर्ग के राज्य की भाषा और भारत संघ की भाषा सीखना अनिवार्य है। ऐसी ही व्यवस्था भारतीय न्यायिक सेवा के लिए क्यों नहीं की जा सकती ? इस संबंध में जब माननीय न्यायमूर्ति राजन कोचर जी से चर्चा हुई तो उन्होंने भी इस सुझाव को पूर्णत: उपयुक्त माना।

अब जबकि उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश भारत के प्रधानमंत्री सहित जनतांत्रिक अधिकारों की रक्षा और न्यायिक व्यवस्था को जन-सुलभ बनाने के लिए पूरा देश एक मत दिखाई दे रहा है तो ऐसे में सरकार को ही नहीं बल्कि सभी विपक्षी दलों और जनतांत्रिक मूल्यों के पैरवीकारों को भी जनहित में जनभाषा में न्याय के लिए हर संभव प्रयास करना चाहिए। यह सर्वविदित है कि न्यायपालिका ही नहीं कार्यपालिका और विधायिका पर भी अंग्रेजी की बहुत मोटी परत चढ़ी है। और यह परत जनता के नहीं, वकीलों और न्यायाधीशों के हितों को साधती है। ऐसे में जनभाषा यानी संघ व राज्य की राजभाषा में न्याय की राह सरल नहीं। निहित स्वार्थ हर जगह इसकी राह रोकने की हरसंभव कोशिश करेंगे। बिना दृढ़निश्चय के न्यायपालिका से अंग्रेजी की इस मोटी परत को उतारकर वहाँ जनभाषा को स्थापित करना आसान नहीं।

अब देखना यह है कि जनता की जनभाषा में न्याय की माँग पर उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और प्रधानमंत्री के वक्तव्य इस दिशा में आगे की ओर बढ़ेंगे या यह एक लोकलुभावन शिगूफा बन कर रह जाएगा।

— डॉ. एम.एल. गुप्ता ‘आदित्य’

निदेशक, वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई

डॉ. एम.एल. गुप्ता 'आदित्य'

पूर्व उपनिदेशक (पश्चिम) भारत सरकार, गृह मंत्रालय, हिंदी शिक्षण योजना एवं केंद्रीय हिंदी प्रशिक्षण उप संस्थान, नवी मुंबई