वन स्नान चिकित्सा और ऋग्वेदीय वायु चिकित्सा का मूलाधार हैं वृक्ष
वैज्ञानिकों का कहना है कि प्रतिवर्ष घने जंगलों में सप्ताह दो सप्ताह रहने से मनुष्य को इसलिए अच्छा लगता है, क्योंकि उसके डीएनए में वे स्मृतियां आज भी संचित हैं, जब लाखों वर्ष पहले मनुष्य का धरती पर प्रथम बार वृक्षों के बीच अवतरण हुआ था। इसलिए जब भी मनुष्य जंगलों में या किसी सुरक्षित अरण्य क्षेत्र में जाता है तो वे पुरातन स्मृतियाँ चीख-चीख कर कहती हैं कि ये जंगल ही तो वे गर्भाशय हैं, जहां तुम्हें किसी से डर नहीं था, ये तुम्हारे निसर्गिक सुरक्षा कवच हैं। वहां के हरे-भरे वृक्ष, पक्षियों का कलरव, नदी-जलाशयों की निकटता से मनुष्य को लगता है कि वह सबसे निरापद, निर्द्वंद्व, सुखद, तनावरहित और आल्हादित करने वाले स्थान पर है। पर्यावरण, जैव विविधता और मनुष्यों के मानसिक स्वास्थ्य के बीच अन्तर्सम्बन्धों पर अनुसंधान करने वाले ग्रीन जिम के संस्थापक डॉ.विलियम बर्ड ने हेल्थ एंड नेचरल एनवायरनमेंट में इस विषय में अपना शोध पत्र प्रस्तुत किया था। अमेरिका, जापान और अन्य देशों में हुए शोध अध्ययनों से वैज्ञानिकों ने सिद्ध किया है कि पेड़ों और जंगलों की निकटता से रोग प्रतिरोधी शक्ति बढ़ती है, तनाव कम होता है, रक्तचाप सामान्य हो जाता है, मूड अच्छा हो जाता है, एकाग्रता बढ़ जाती है, शल्यचिकित्सा से रिकवरी बढ़ जाती है, ऊर्जा का स्तर बढ़ जाता है, निद्रा सुखद हो जाती है। मनुष्य के शरीर में सकारात्मक रसायनों की मात्रा बढ़ जाती है। इस वन विहार को आधुनिक वैज्ञानिकों ने वन चिकित्सा या वन स्नान नाम दिया है। ऋग्वेद और अथर्ववेद में जिस वायु चिकित्सा का वर्णन है, यह प्रकारान्तर से वन-स्नान ही है। वन-स्नान अर्थात् घने वृक्षों से घिरे जंगलों में भ्रमण करना। वन-स्नान से मन शान्त हो जाता है। डॉ.विलियम बर्ड के अनुसार वन-विहार से प्रकृति और मानव जाति के नैसर्गिक सम्बन्धों को जानने का अवसर मिलता है। तनाव, अवसाद, उच्च रक्तचाप, अनिद्रा और रोग प्रतिरोधी शक्ति की दृष्टि से वायु चिकित्सा बहुत ही प्रभावी है। वैज्ञानिकों का कथन है कि मनुष्य के अवतरण के समय घर नहीं थे, कोई दीवारें नहीं थी, वास्तव में प्रकृति ने मनुष्य शरीर की रचना प्राकृतिक वातावरण के अनुकूल ही की थी और वन स्नान से मानव को नैसर्गिक स्वास्थ्य का लाभ मिलने लगता है, जिसकी प्राप्ति आपाधापी भरे जीवन और दीवारों से घिरे मकानों में सम्भव नहीं है।
श्रीराम का वनवास और वन स्नान
वन स्नान शब्द का प्रथम बार प्रयोग जापानियों ने 1980 के दशक में शिनरिन-योकू (Shinrin-Yoku, वन स्नान या वन वातावरण) के तहत प्रयोग किया था, उनके अनुसार वन स्नान से मनोशारीरिक लाभ होते हैं, एक ओर जहां शरीर में जमा कैलोरीज का दहन हो जाता है दूसरी तरफ भागमभाग और आपाधापी भरे जीवन के विष के लिए यह एक एको फ्रेंडली विषहर औषधि (एंटीडोट) भी है। हालांकि वन विहार की मूल अवधारणा भारतीय ही है। भगवान श्रीराम, माता सीता और भ्राता लक्ष्मणजी का वनवास और उनका पूरे चौदह वर्षों तक वन आधारित स्वस्थ जीवन इसी वन स्नान के लाभों का परोक्ष दीर्घावधि अनुसंधान है। यदि हम भगवान श्रीराम के वनवास के समय घटित सभी घटनाओं का अध्ययन, विश्लेषण और संश्लेषण करेंगे तो वन विहार से सम्भावित मनोशारीरिक, भावनात्मक, सामाजिकता, मनोवैज्ञानिक, मैत्रीभाव, प्रशासनिक, राजनीतिक, विदेश नीति और पराक्रम विषयक लाभों के विषय में अनुमान लगा सकते हैं। हमारे यहाँ वैद्य हवा बदलने (हवा पलटने) के लिए प्राकृतिक स्थानों पर जाने की सलाह दिया करते थे।
एक तरफ जहां वन विहार के समय व्यक्ति को शुद्ध प्राणवायु अधिक प्रमाण में मिलती है और दूसरी तरफ वृक्षों से वाष्पीकृत रूप में निकलें सकारात्मक रसायनों में स्नान का सौभाग्य अनायास ही मिल जाता है। सन 2009 में एक बार फिर जापानी वैज्ञानिकों ने वन स्नान पर एक लघु अध्ययन किया था और उसमें पाया कि देवदार जैसे पेड़ों से उत्पन्न यौगिकों, जिन्हें फाइटोनसाइड्स के रूप में जाना जाता है, जो पुरुषों और महिलाओं में तनाव हारमोन की सांद्रता को कम करते हैं और इम्युनिटी के लिए जिम्मेदार नेचरल किलर श्वेत रक्त कणिकाओं की गतिविधि को बढा देता है।
वन चिकित्सा के विशेषज्ञ चौकास-ब्रैडली (Choukas-Bradley) कहते हैं कि आँखें बन्द करो और केवल सांस लेते रहो, यह ध्यान की अनूठी विधा है, यह आपके मस्तिष्क की अव्यवस्था को दूर करने में सक्षम सिद्ध हो सकती है और प्रकृति से आपके सम्बन्धों में लयबद्धता स्थापित कर सकती है। एसोसिएशन ऑफ नेचर एंड फॉरेस्ट थेरेपी के संस्थापक और योर गाइड टू फारेस्ट बाथिंग: एक्सपीरियंस द हीलिंग पॉवर ऑफ़ नेचर पुस्तक के लेखक अमोस क्लिफोर्ड (Amos Clifford), अमेरिकी सरकार से वन-चिकित्सा को तनाव के सफल उपचार के रूप में सम्मिलित करवाने हेतु प्रयासरत हैं, क्योंकि अमेरिका में तनाव एक बहुत बड़ी और व्यापक स्वास्थ्य समस्या है। सुखद है कि अमेरिका में वन-स्नान का शुभारम्भ हो चुका है और अमोस क्लिफोर्ड के मार्गदर्शन में अगले तीन वर्षों में हजारों गाइड तैयार हो जाएंगे। वन स्नान आधुनिक जीवन शैली से होने वाले रोगों की रामबाण औषधी के रूप में स्थापित हो चुका है। सन 2011 में एक अध्ययन सम्पन्न हुआ, जिसमें शहर में टहलने और वन में टहलने के प्रभावों का तुलनात्मक अध्ययन हुआ है, शोधकर्ताओं ने पाया कि वन विहार करने वालों का रक्तचाप सामान्य होने लगता है और तनावकारी रसायनों में उल्लेखनीय कमी हो जाती है। ड्यूक विश्वविद्यालय के एकीकृत चिकित्सा विशेषज्ञ डॉ. फिलिप बर्र कहते हैं कि तनाव के रोगियों को वन स्नान से अत्यधिक लाभ होता है। उनका कहना है कि वन स्नान से मानव शरीर के पैरासिम्पेथेटिक तंत्र की गतिविधि बढ़ जाती है, जो प्रशामक होती है और जिससे रक्तचाप में गिरावट आ सकती है और तनावकारी गतिविधियों पर अंकुश लग जाता है।
भारत के उत्तराखण्ड वन विभाग के रिसर्च विंग द्वारा रानीखेत में 13 एकड़ के क्षेत्र में वन चिकित्सा केन्द्र (Forest Healing centre) की स्थापना हुई है, जहां वृक्षों से आलिंगन, वन विहार, आकाश को निहारना, वन में ध्यान जैसी गतिविधियों के संचालन के माध्यम से एकाग्रता और विचारों पर नियन्त्रण के प्रयोग सम्पन्न होंगे। यह चिकित्सा केन्द्र एक पाइन वर्चस्व वाले जंगल में स्थापित किया गया है, इन वृक्षों से निकलने वाले फाइटॉनसाइड्स रोगाणुओं का नाश करते हैं तथा कैंसर आदि रोगों के प्रति रोग प्रतिरोधी शक्ति को बढाते हैं। वृक्षों का आलिंगन करने से उनके विशिष्ट आणविक कम्पन पैटर्न के कारण ऑक्सीटोसिन, सेरोटोनिन और डोपामाइन जैसे फील-गुड हार्मोन के स्तर में वृद्धि होने से तन और मन तथा भावनात्मक रूप से सुखद प्रभाव उत्पन्न होते हैं।
वास्तव में हमारा वर्तमान कामकाजी जीवन और हमारे घर हमें विश्रान्ति और पर्याप्त सुख सुविधाएं तो देते हैं, परन्तु हमारी नैसर्गिक रचनात्मकता तथा अन्तर्निहित प्रतिभा के साथ न्याय नहीं कर पाते हैं, जो अवचेतन मन में तनाव उत्पन्न करने में सक्षम होते हैं। यदि हम वन स्नान करते हैं तो तात्कालिक रूप से निसर्ग से जुड़ जाते हैं और तनाव कम होने लगता है। फोर एक्सेंट्रिक वेज ट्रीज केन हील यू ( 4 Eccentric Ways Trees Can Heal You) में बताया गया है कि वन स्नान, वन विहार के समय वृक्षों से निकली गंध को सूंघना, वायु के स्पर्श से वृक्षों और उनके पत्तों से निकली ध्वनि, पक्षियों का कलरव और वन सम्पदा को निहारने से व्यक्ति पर स्वास्थ्यकारी प्रभाव पड़ते हैं, मस्तिष्क शान्त होने लगता है, इम्युनिटी बढ़ने लगती है, पैरासिम्पेथेटिक तंत्र हावी होने लगता है, जो शरीर की सभी तनावकारी गतिविधियों के लिए प्रशामक का काम करता है।
हमारे ऋषि-मुनियों ने जप, तप और अपने सभी अनुसंधान वनों में ही सम्पन्न किए हैं, वैसे भी आविष्कार एकाग्रता में ही सम्भव हैं और वन से श्रेष्ठ एकान्त सम्भवत: दूसरा कोई नहीं है। वेदों-उपनिषदों में प्रकृति का विशद वर्णन है, सनातन धर्म के प्राथमिक उपनिषदों में से एक “बृहदारण्यक उपनिषद” घने जंगलों में लिखा गया उपनिषद है, इसमें ऋषि याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी के संवाद का सुन्दर वर्णन है।
यदि हम मनुष्यों को तन, मन, भावनात्मक और आध्यात्मिक रूप स्वस्थ रहना है तो वृक्षों को अपना पितामह मानकर उनका संरक्षण करना होगा, वार्षिक रूप से वन स्नान को अपनाना होगा, वृक्षों का आलिंगन कर सकारात्मक रसायनों के माध्यम से तनावों से मुक्ति पाना होगी। वनों, वृक्षों, पर्वतों के विनाश का वर्तमान क्रम निरन्तर चलता रहा तो मानवता के सर्वनाश को रोकना असम्भव होगा।