कविता
मरी हुई हो आत्मा जिसकी, बस शरीर ही ज़िन्दा हो,
उसको कोई क्या मारेगा, जो खुद पर ही शर्मिंदा हो।
नहीं अभिमान जिसे राष्ट्र पर, न जाति का गौरव हो,
मुग़लों का गुणगान जुबां पर, और राष्ट्र की निंदा हो।
पाक समर्थन की बातें, खालिस्तान के साथ खड़ा,
सत्ता का विरोध स्वार्थ हित, जैसे उसका धन्धा हो।
षड्यंत्रों के खेल में शामिल, निज हित सबसे आगे,
मरा हुआ है वह पहले ही, शरीर भले ही ज़िन्दा हो।
— अ कीर्ति वर्द्धन