जागरण
भय भरती थीं नदियाँ गहरी,
जग कहता था नाविक अबोध।
जाना उस पार नहीं सीखा।
चट्टानों की दीवार तोड़,
जाना उस पार नहीं सीखा।मैं समझ रहा था जीवन में,
सड़कें सपाट ही मिलती हैं।
इस स्वप्नवाटिका में केवल,
मादक कलियाँ ही खिलती हैं।
बाधाओं की विपदा झेली,
तब नई सोच मैं पाया हूँ।
निज को अनुभव की माला से,
पग-पग पर नित्य सजाया हूँ।
पर्वत-सरिताएँ-महासिन्धु,
मिलते हैं थल के साथ-साथ।
जीवन द्वन्द्वों का संगम है,
दिन ढलता,आती सघन रात।
प्रभु सदा नहीं छलकाते हैं,
पथ में मीठे रस की गगरी।
कटु रस भी पीना पड़ता है,
सुख-दुख की यह नगरी ठहरी।
पुष्पों के साथ हरित किसलय,
ऋतुराज सुहावन लाता है।
क्रंदन करता नीरस पतझड़,
सूनापन भी दे जाता है।
जीवन सरिता में अमिय संग,
विष की धाराएँ बहती हैं।
हिम की वर्षा के साथ कहीं,
बहु अग्निशिखाएँ जलती हैं।
जागरण,किन्तु आह्वान करे,
पत्थर पर चोट लगाओ तुम।
गुत्थियाँ सुलझती जाएँगी,
निज को सहर्ष उलझाओ तुम।
पाषाण-पृष्ठ पर नवाघात,
पैदा करता नव चिंगारी,
जिसकी आभा में दृश्यमान,
हो सकती हैं निधियाँ सारी।
तुम कुसुम-सेज पर सोते हो,
पथ के शूलों का ध्यान रहे।
झन-झन चलती हैं तलवारें,
जय है उसकी जो वार सहे।
दो कदम बढाकर सीने पर,
सह लो विपदा का वज्रपात।
आशीष लुटाएगी वसुधा,
यशगान करेगा नव प्रभात।