गंगा-वंदना
गंगा मइया तुम हो पावन,तुम तो हो सबकी मनभावन।
तुम हर लेतीं सबके दुख को,देतीं हो फिर सबको सुख को।।
गंगा मइया पापहारिणी,सचमुच में हो दु:खहारिणी।
मोक्ष प्रदायक,मंगलकारी,गंगा मइया तुम हितकारी।।
शिवजी-केशों से उद्भूता,गंगा माँ से सब अभिभूता।
नीर तुम्हारा पावन निर्मल,सदियों से जो करता कल-कल।।
तप जब भागीरथ ने कीन्हा,गंगे ने उनको वर दीन्हा।
स्वर्गलोक से दौडी़ं आईं,वेग प्रखर लेकर के धाईं।।
निज पुरखों को मोक्ष दिलाया,भागीरथ ने तो फल पाया।
भारतभूमि बनी पावनतम,मिटा धरा का सारा मातम।।
गंगाजी अँधियार मिटातीं,गहन तिमिर सारा पी जातीं।
सबकी पूज्य,सभी को भातीं,जनम-जनम के शाप मिटातीं।।
दया करो हे ! गंगे माता,जग से मेरा जी घबराता।
तुम कर दो उपकार सुहावन,जीवन मेरा हो मनभावन।।
जमुना के सँग संगम करतीं,तीरथ में सबके दुख हरतीं।
गंगा मइया तुम अविनाशी,तुमसे ही पावन है काशी।।
बहे तुम्हारी अविरल धारा,रूप लगे है बेहद प्यारा।
नीर तुम्हारा सबसे न्यारा,अमरत भी उस पर है वारा।।
गंगा माँ सब पर उपकारी,करते आज सभी जयकारी।।
सकल देव भी हैं बलिहारी,आशीषें देते त्रिपुरारी।।
गंगा-नीर बहुत उपयोगी,करे आचमन हर नर,योगी।
संत होय या होवे भोगी,स्वस्थ रहे या होवे रोगी।।
— प्रो (डॉ) शरद नारायण खरे