गज़ल
वैसाखियाँ थामें चल रहे हैं वे
इसलिए बार-बार फिसल रहे हैं वे
ये जानकर की धमक से गिरेगा वो
फिर भी उसी पुल पर चल रहे हैं वे
इन दीयों में नहीं है तेल फिर भी
उसी अंधेरे को निगल रहे हैं वे
भूख का हल नारों से होता है
इसलिए नारों से बहल रहे हैं वे
सेहत के लिए है वातावरण खराब
फिर भी इसी में टहल रहे हैं वे
मिल गई ज़रा भी उपलब्धि क्या उसे
अब अख़बारों में उछल रहे हैं वे
अपने ही स्वार्थ के खातिर रमेश
एक दूसरे को ही छल रहे हैं वे
— रमेश मनोहरा