प्रदर्शन नही हिंसा
लोकतंत्र में हर नागरिक को स्वतंत्रता दी गई। परन्तु कुछ अतिवादी तत्वों ने इसे स्वच्छन्दता समझ लिया। विरोध प्रदर्शन करने के बहाने हर तरह की हिंसा करना, पत्थरबाजी करना, आगजनी करना, दंगे करना, कई दशकों से देश ने कई दंगे इसी तरह शुक्रवार एक साथ देखें है। वह समय अपने आप मे अलग था तब सोशल मीडिया इतना एक्टिव नही था , आज सोशल मीडिया से भ्रम फैला कर एक साथ कई शहरों में हिंसा के लिए असमाजिक तत्व शुक्रवार को ही तय करते है। इसका सबसे बड़ा कारण एक साथ एकत्रित भीड़ एक छत के नीचे मिल जाती है जिसे तकरीरों से भड़काना बहुत आसान होता है। हम उत्तरप्रदेश, प बंगाल, दिल्ली, असम, मध्यप्रदेश, राजस्थान कई प्रदेशों में हुई हिंसा का विश्लेषण करेंगे तो समझ आएगा कि देश या विदेश में हुई किसी भी घटना के विरुद्ध अगर मुस्लिम प्रतिक्रिया देता है तो वह दिन शुक्रवार ही होता है।
सोशल मीडिया और अन्य माध्यमों से भिड़ एकत्र करने का प्रयास होता है। शुक्रवार का दिन, नमाज़ के बहाने एकत्रीकरण, भीड़ को भाषण से उकसाना, भीड़ द्वारा पथराव, हिंसा दंगे।
विवाद किसी भी विषय पर हो, चाहे फ्रांस के किसी कार्टूनिस्ट का विरोध हो, म्यांमार से भगाये गए रोहिंग्या मुस्लिमो का विषय हो, सीएए एनआरसी का विरोध हो, सभी अवसरों पर यह तथ्य एक दम सही सिद्ध हुआ। बिना अनुमति के एकत्रित होने के लिए शुक्रवार का दिन चयन किया जाता है। इन हिंसाओं में असमाजिक तत्व पुलिस पर पथराव से भी नही डरते।
अभी वर्तमान में नूपुर शर्मा के कहे गए तथ्यों से विचलित होकर कई असामाजिक तत्व सड़को पर आकर हिंसक प्रदर्शन करने लगे। प्रदर्शन करना अपनी बात प्रशासन तक रखना सबका अधिकार है, परन्तु किसी भी घटना या कथन को आधार बना कर हिंसा करना, सामाजिक जीवन खतरे में डालना, जन धन की हानि करना, पत्थरबाजी और पुलिस पर पथराव करना कहाँ तक सही है ? ईमान की बात करने वाले पहले ही अपनी इज्जत कई विषयों में बेवजह उलझकर गंवा चुके है, ऐसी घटनाओं से देशवासियों के मन मे और अधिक वैमनस्यता का भाव ही जाग्रत करेंगे। शिव लिंग का अपमान करने, उसे फव्वारा कहकर हिन्दू आस्थाओ का हास्य बनाने के लिए देश से मांफी नही मांगेंगे। दिल्ली, प बंगाल, लखनऊ, प्रयागराज, आदि कई जगह एक साथ एक समय पर सड़को पर निकलकर पत्थरबाजी की जाती है।
अब मीडिया भी इन घटनाओं को सीधे रूप में हिंसा लिखना चाहिए, क्योंकि ये प्रदर्शन होते कहाँ है ? हिंसा ही होती है । समाज को होने वाली परेशानी नही देखी जाती, पुलिस को बेवजह टारगेट करके हमले किए जाते है, पुलिस जवानों पर पथराव और हमले ऐसे किए जाते है जैसे पुलिस जवानों ने ही कोई टिप्पणी की हो। अल्लाह हु अकबर के नारों के साथ पत्थर बरसाने वाली ये भीड़ जब पुलिस जवानों द्वारा कुटी जाती है तब खुद को बेसहारा और पीड़ित बताते है। जबकि इन सांप्रदायिक हिंसा या दंगो में सार्वजनिक संपत्ति, पुलिस गाड़ियों, मीडिया गाड़ियों आदि किसी भी संपत्ति को नुकसान पहुँचाया जाता है।
आम तौर पर भारत के अधिकतर दंगो की यही तस्वीर होती है।
कई जगह पुलिस की संख्या कम होने के कारण भी हिंसक भीड़ को मनचाहा दुष्कृत्य करने का साहस मिल जाता है। इस हिंसा दंगे और सांप्रदायिक माहौल बनाकर मनमानी करने की प्रवत्ति का हल क्या हो सकता है ? इस पर चिंतन होना चाहिए।
समाज की एकजुट शक्ति ही इन सभी हमलों का एकमात्र उपाय है। सामाजिक संगठन युवा जागरण का केंद्र बने, समस्त देशवासियो को अधिक से अधिक संख्या में सामाजिक व राष्ट्रीय विषयो पर चिंतन कर, युवाओ की दिशा तय करना चाहिए ।
— मंगलेश सोनी