अभिलाषा
झुकाकर पलकें कुछ कहा जो मैंने,
पढ़ लो प्रिय इन नयनों की भाषा।
खामोशी को समझ सको तो,
समझो इन अधरों की अभिलाषा।
रसमय चुम्बन से तुम अपने,
हृदय क्षुधा को तृप्त कर देना।
बाहु पाश में अपने लेकर,
प्रेम आलिंगन तुम कर लेना।
पतझड़,सावन हो या कैसा भी मौसम,
रहो विचरते इस मन उपवन में।
शीतल बयार हो या हो अग्नि की वर्षा,
रहना सदा ही तुम मेरे संग में।
प्रेम तुम्हारा सच्चा तब मानूं,
जब ढलते यौवन को भी निहारो।
श्वेत केश हों या हो जाए जर्जर काया,
हर इक रूप में तुम मुझे स्वीकारो।
— कल्पना सिंह