व्यंग्य – आजकल घर की कुल देवी और देवता
गर्मियों की छुट्टियों के उपलक्ष में घर में भांति भांति के मेहमान आए हुए थे।मैंने भी खूब शरबत आदि बना रखे थे,जिस का सब बड़े प्यार से मजे ले ले कर सेवन करतें थे।सुबह नाश्ते के बाद शाम चार बजे भी तो मैंने सोचा खाना तो जैसे तैसे गर्मी में बन ही जाता हैं किंतु आज गर्मी में रसोई घर में जा चाय नहीं बनानी पड़ेगी।लेकिन नहीं सभी बड़ों को तो चाय चाहिए ही।बच्चे चाहे मान जाएं किंतु बड़ों को कौन समझाएं उन्हे तो कुलदेवी (चाय) के दर्शन करने ही होते हैं।
और दूसरे कुलदेवता आलू जी,सब्जी चाहे कोई भी बनालों आलू तो चाहिएं ही। मैंने भिंडी काट रखी थी जैसे ही रसोई की और मुड़ी तो पिछे से ननंद जी की आवाज आई,” भाभी इसमें आलू जरूर डालियेगा वरना बिट्टू ने नहीं खाना हैं इसे!”
और हो गया कल्याण,फिर भी मैंने प्रत्युत्तर दे ही दिया,” जीज्जी इसमें तो आलू चिकने हो जाने हैं कैसे खाएंगे?”
जिज्जी कहां कम थी इतराके बोली,”कोई नहीं जरा अलग से तल के मिला लेना तो चिकने कहां से होने हैं!” अब तीन पाव भिंडी में दो पाव तले आलू डल ही गएं।और सब ने खूब मजे से खा भी लिएं।
मैने भी तय कर लिए अगली गर्मियों की छुट्टियों में अतिरिक्त मात्रा में कुल देवता और कुल देवी का आह्वाहन कर घर में प्रस्थापित कर लूंगी।
— जयश्री बिरमी