कविता

सच्चा ईमान

घिरे  सपने सारे हैं  विपदाओं से
धरा प्रकोपित और हवाएं  हैं विषम आपदा से
भरे हैं घर आंगन क्रोधित  फिजाओं से
जले हैं पुरखों के इतिहास
 विषैली जवानों के बयानों से
संयम और धर्म से हो रहे हैं दूर राहें ईमान से
जला के क्यों खुश हो रहें हो अपना आशियाना अपने ही हाथों से
समय हैं अभी भी रत हो जाओ देश प्रेम के अफसानों से
खुशी कहां से पाओगे जब खुशियां नहीं बांटेंगे अपने हाथों से
क्यों दूर जा रहे हो अपने माजी के असूलाें के असूल से
आओ आज प्रण ये लें नहीं जुकेंगे नहीं जुकाएंगे किसी को अपने वजुदो से
— जयश्री बिरमी

जयश्री बिर्मी

अहमदाबाद से, निवृत्त उच्च माध्यमिक शिक्षिका। कुछ महीनों से लेखन कार्य शुरू किया हैं।फूड एंड न्यूट्रीशन के बारे में लिखने में ज्यादा महारत है।