व्यंग्य – मुड़-मुड़ के तो देख
हाँ ,हम तुम्हीं से कह रहे हैं।तुम अच्छी तरह से समझ तो गए ही होगे कि तुम्हें पीछे मुड़कर देखने का भी समय नहीं है।अब समय होगा भी क्यों ? क्योंकि तुम्हारे पास पीछे मुड़कर देखना ही शेष नहीं रह गया है। तुम तो बस आगे ही देखने वाले जीव हो।ठीक वैसे ही जैसे गैंडे ने अपनी गर्दन घुमाने की क्षमता ही खो दी है, वैसे ही जीवन में जब कभी भी गर्दन नहीं घुमाई तो तुमने भी अपनी क्षमता गँवाई।जीव विज्ञान का यह सिद्धांत है कि जब किसी अंग का प्रयोग करना बंद कर दिया जाता है तो वह अंग भी संग छोड़ जाता है।जैसे करोड़ों वर्ष पहले किसी युग में मानव की भी गधे, घोड़े, सुअर आदि पशुओं की तरह पूँछ हुआ करती थी,किन्तु पूँछ की पूछ जब बंद कर दी गई तो वह बेचारी भी क्या करती ! वह भी कमर के पिछले निचले हिस्से में संकुचित होकर एक अस्थि शेष के रूप में आज भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है। विश्वास न हो तो पीछे हाथ से टटोल कर देख लीजिए न! हाथ कंगन को आरसी क्या! पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या!
तुम अपने को देश का कर्णधार कहते हो।कर्णधार वह होता है जो किसी नाव की पतवार थाम कर उसे पार लगाता है। तुम्हारा काम पार लगाने का है , नाव को डुबाने का नहीं।जब तुम अपनी नाव पर चतुरदृष्टि नहीं रखोगे तो नाव तो डूब ही जानी है।लगता है तुम्हारा ध्यान हर समय नाव पर नहीं ताव पर रहता है। तुमने अपने को भगवान से भी ऊपर का दर्जा दे रखा है। मंदिर में ईश दर्शन के लिए एक ही जगह प्रसाद चढ़ाया जाता है ,किन्तु तुम्हारे दरबार में जितने पुजारी ,मठ महंत बैठे हैं ,सभी को पुजापा चढ़ाने की परंपरा है। चाहे किसी के पास हो अथवा नहीं, पर उन्हें अवश्य चढ़ाए! भले तुम्हारा दर्शन हो पाए या नहीं हो पाए। अंत में लौट के बुद्धू घर को बैरंग आए! यदि तुमने अपनी गर्दन घुमाकर अपने भक्तों की ओर देखा होता तो इन पुजारियों की ठगी का शिकार नहीं होना पड़ता । पर भला तुम्हें तो इससे कोई फर्क ही नहीं पड़ता!
जिस काम का वादा करके तुम जनता के पास दर-दर पर गए औऱ अपनी टोपियाँ या गमछे उसके चरणों में पलक पांवड़े की तरह बिछा दिए ,उस जनता को इतना उपेक्षित तो नहीं करना चाहिए था।पर भला तुम्हें भी कोई समझा सकता है? क्योंकि सर्व बुद्धिमान होने का परमिट तो केवल और केवल तुम्हारे ही पास है न!
साक्षर ,अल्प साक्षर अथवा निरक्षर होकर भी तुम आई. ए. एस.; आई.पी.एस. पर
शासन करते हो।डाँटते हो। कभी -कभी अपने जूतों के तसमें खुलवाते तो कभी डिसपोजेबिल कवर उतरवाते हो। आपका यह प्रकरण शर्म करने योग्य तो बनता है।करनी भी चाहिए।परंतु यदि शर्म ही शेष होती ,तब तो गर्दन को मोड़कर भी देख सकते थे।एक बार चरणों में
समूचे ही यू शेप में घुटनों तक झुक लिए ,कोटा पूरा हो गया; झुकने का भी मुड़ने का भी।
सम्भवतः कृतघ्नता की परिभाषा तो तुम्हें अच्छी तरह आती होगी।इसलिए बता भी नहीं रहा हूँ।यदि मैंने तुम्हें कृतघ्नता की परिभाषा बतलाई तो तुम्हारी ग्रीवा इधर -उधर तो नहीं ;हाँ, भूमुखी अवश्य हो जाएगी।वह भी तब जब कि तुम्हारे भीतर थोड़ा – बहुत अंश मानवता का भी शेष होगा!पर मुझे तो इसमें भी संदेह का कालापन दिखाई देता है।दाल में काला नहीं; समूची दाल ही काली है।
तुमसे डरना आम आदमी की मजबूरी है।क्योंकि तुम्हारे औऱ उसके मध्य सैकड़ों किलोमीटरों की दूरी है।तुमने कभी आदमी को आदमी समझा ही कब है! ये तो समझने का ‘मौसम’ न आया होता तो आदमी ऊदबिलाव दिखाई देता। ‘भय बिनु होय न प्रीति ‘ का सिद्धांत खूब अपनाते हो।उसी बल पर बंदर के मदारी की तरह नचाते हो।परन्तु अपना कर्म पूरी तरह भूल जाते हो।
बालू की नींव पर रखे हुए भवन का अस्तित्व बहुत अधिक समय तक स्थाई नहीं रहता। आश्वसनीय बालू का तुम्हारा भवन भी कब ढह जाए कुछ भी पता नहीं।पर तुम्हें कोई फर्क भी नहीं पड़ता। अपना उद्देश्य तो इसी भवन- निर्माण से पूरा कर लोगे। ठिकाने बदल लोगे।पर कसम खाकर बैठे हो कि गर्दन नहीं मोड़ोगे तो नहीं ही मोड़ोगे। इससे तुम्हारा महत्त्व घट जाएगा, ये मेरी नहीं; तुम्हारी चुहिया – सी सोच है। सबसे बड़ा सहारा तो अदृश्य उत्कोच है।कहीं ऐसा तो नहीं तुम्हारी ग्रीवा में कहीं स्थाई मोच है ? इसलिए बेचारे अपनी ग्रीवा को मोड़ें तो कैसे मोड़ें? भले ही किसी औऱ की समूल तोड़ें या मरोड़ें ;पर अपना उद्देश्य पल भर के लिए भी नहीं छोडें।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम्’