व्यंग्य – सब ते भले वे मूढ़ जन
संसार में जितने भी जीव देह धारण करते हैं;मुझे लगता है कि सबका एक ही उद्देश्य है। और वह है :आनंद प्राप्त करना। येन केन प्रकारेण उसकी सारी खोज ‘आंनद प्राप्ति’ की ही होती हैं।यह हर जीव की योनि पर निर्भर करता है कि उसे किस विधि से अधिक और लंबे समय तक आंनद प्राप्त हो सकता है।मानव, पशु,पक्षी, जलचर , स्वेदज आदि का अपना – अपना संस्कार है ,जिसके परिणामस्वरूप उसे आंनद प्राप्ति की भरपूर संतुष्टि होती है।
उदाहरण के लिए सुअर को ही ले लीजिए। उसे देश और दुनिया से दूर कीचड़ में लोट मारने में आनन्द आता है ,उतना आंनद संभवतः किसी प्रकार नहीं आता होगा।उसे इस बात से कोई मतलब नहीं कि सोने के भाव कितने रुपए प्रति दस ग्राम हैं अथवा पेट्रोल की दर आसमान को छू रहीं हैं।उसके समक्ष यदि छप्पन प्रकार के सुस्वादु व्यंजनों का ढेर भी लगा दिया जाए तो खाने की तो बात ही क्या वह उन्हें देखेगा या सूंघेगा भी नहीं।उसका आनन्द तो पंक- शयन में ही निहित है। शेष सभी आंनद- साधनों से वह सर्वथा अपरिचित है।यहीं पर उसका ऋत है।सत है।कहिए इस सम्बंध में आपका क्या मत है?
वैशाख – नंदन -गर्दभ को धूल उड़ाते हुए घूरे पर लोटने में जो आनंदानुभूति होती है,वह त्रिलोकों में कहीं भी नहीं है।गुबरैले को गोबर – निवास में, गोबर की तेज सुवास में, दादुर को तालाब की टर्राहट में, उल्लू को नेत्र बंदकर खंडहर में ‘उल्टासन’ में लटकने में,चमगादड़ को रात्रि जागरण में ‘लटकासन’ में औऱ आदमी को ‘भटकासन’ में जो आनन्द आता है ,वह अन्यत्र दुर्लभ है।सबके आनन्द के स्रोत अलग – अलग हैं।
एक विचित्र बात ये भी है कि मनुष्य ने यद्यपि मानव देह धारण करने का लाभ प्राप्त कर लिया है ,किन्तु उसके मानव देह में जीवन जीने के बावजूद उसमें सुअर ,ग धा, कुत्ता,उल्लू, चमगादड़ , मछली, मेढक,गुबरैला,साँप,बिच्छू, मच्छर,बंदर, साँड़, जूंआँ , आदि न जाने कितने जीवों के आनंद प्राप्ति के ‘सद्गुण’ रचे – बसे हुए हैं।यही तो उसका सौभाग्य है कि एक ही देह से वह मनचाहा आंनद रस पा रहा है। उसे मरण पूर्व सुअर ,कुत्ता आदि शरीर धारण करने का सुखानुभव पहले ही मिल रहा है। जो उस योनि में जाने पर एक सांस्कारिक अनुभव का काम भी दे सकेगा। इसीलिए प्रकृति ने मानव शरीर देकर उसे टू इन वन,थ्री इन वन ,फ़ॉर इन वन नहीं, ‘मल्टी इन वन ‘ बना दिया है।
हर रूप में आनंद का लाभ वह इच्छानुसार ले सकता है। ले भी रहा है।कुछ ऐसे मानव देहधारी ‘महापुरुष’ हैं ;जो प्रत्यक्षत: नेता ,अधिकारी या मठाधीश हैं ,लेकिन परोक्ष रूप में उनमें रक्त चूषक मशकों के सभी लक्षण विद्यमान हैं ,और वे निर्भय होकर रक्त – चूषण की क्रिया में अहर्निश संलग्न हैं। कोई रोकने -टोकने वाला भी नहीं है।उनके लिए न कोई ‘आल आउट’ है , न अगरबत्तियां औऱ न ही कोई कॉइल निर्माण हुआ है।देश भक्त के आवरण में वे मच्छराधिपति बने हुए जन-जन का अलंकार बने हुए हैं।ऐसा नहीं कि उन्हें गेंदा औऱ गुलाब की भारी – भारी मालाओं में दुर्गंध आती हो। वे उन्हें बहुत ही प्रिय हैं।उन्हें अन्य प्रकार की जगत -गतियों में कोई रुचि नहीं है । रूप -स्वरूप बदल कर अपना उल्लू सीधा कर लेना उनका विशेष गुण है।
इनके दर्शन लाभ प्राप्त करना भगवान के दर्शन से भी दुर्लभ कार्य है। मूढ़ बनकर मलाई चाटना मानव की रहस्यमय बुद्धि की अति विशिष्ट उपलब्धि है।उसका बहुरूपियापन उसका विशेष गुण है। आदमी की देह में वह सभी जगह समायोजित हो जाता है।कहीं कोई कठिनाई आड़े नहीं आती।उसका ‘मूढ़’ बने रहकर घाघपन करना उसका गुण ही बन जाता है।आंनद के विविध स्रोतों से अनुभव प्राप्त करके वह अपने परिजन और इष्ट मित्रों ही नहीं अपनी सत्तर -सत्तर पीढ़ियों को लाभान्वित करने का पुण्य प्राप्त कर लेता है।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम्’