उधेड़बुन
किसान के बेटे दिनेश ने एक प्राइवेट कंपनी में काम करते हुए ही अपनी 2 एकड़ के भूखंड पर “फार्म हाउस” बना लिया था. कंपनी में भले ही वह अच्छे पद पर था और प्रतिभाशाली होने के कारण उसके मान-सम्मान में भी कोई कमी भी नहीं थी, फिर भी प्राइवेट कंपनी की अनिश्चितता की आशंका को देखते हुए उसने अपने लिए एक सुरक्षित विकल्प तैयार कर दिया था.
“मिस्टर दिनेश, कुछ दिनों से आपके काम में तनिक ढील नजर आ रही है.” बॉस ने कहा.
बात उसके मन में कटार-सी चुभ गई. ऑफिस में किसी ने इस तरह की बात पहली बार कही थी, वह भी बिना कारण.
“दिनेश, आजकल आप लेट आने लगे हैं.” बॉस ने कहा.
अकारण ही कटार का यह दूसरा वार था. बिना किसी हील-हुज्जत के हाजिरी पंजिका उसकी साक्षी बन सकती थी, पर दिनेश ने उसको अवसर ही नहीं दिया.
क्या करना चाहिए की उधेड़बुन में वह घर आया. ऊपर जाने के लिए उसने लिफ्ट को आदेश दिया. जो लिफ्ट दूसरी मंजिल पर खड़ी थी वह नहीं आई, सातवीं मंजिल वाली आ गई. उसने उसी लिफ्ट के स्विच को आदेश दिया था. ऊपर जाकर उसने गार्ड रूम में फोन करके कारण पूछा. पता चला कि दोनों लिफ्टों के समन्वयन में कुछ तकनीकी गड़बड़ी हो गई है, इसलिए दोनों के रास्ते अलग-अलग हो गए हैं.
समन्वयन की तकनीकी गड़बड़ी के चलते उसके और उसके बॉस के रास्ते भी अलग-अलग हो गए हैं, उसने निष्कर्ष निकाला.
तुरंत ही अपनी कलम को आदेश देकर उसने एक तरफ अपने “फार्म हाउस” के विस्तारीकरण के लिए प्रपत्र तैयार किया, दूसरी तरफ इस्तीफा तैयार करके भेज दिया.
समन्वयन की समाप्ति के चलते उसने कटार के तीसरे वार की प्रतीक्षा न करते हुए अपनी कलम से वार किया था.
दिनेश की उधेड़बुन समाप्त हो गई थी, बार-बार बॉस के संदेश आने से शायद अपने प्रतिभाशाली और विश्वासपात्र कर्मचारी को बेवजह खोने के कारण अब बॉस उधेड़बुन में था.
राजनीति में, समाज में, घर में, देश में जहां देखें उधेड़बुन का ही राज दिखाई देता है. उधेड़बुन के कारण ही उठापटक चलती रहती है और यही उठापटक तबाही का कारण बनती है. उठापटक में बुद्धि के दरवाजे बंद हो जाते हैं और न अपना हित दिखाई देता है, न देश-दुनिया-समाज का हित. उधेड़बुन और उठापटक ने सहिष्णुता को कहीं पीछे छोड़ दिया है. उधेड़बुन और उठापटक के समाप्त होने पर ही सहिष्णुता और सौहार्द से उन्नति की राहें प्रशस्त होंगी.