गीत/नवगीत

गीत

गिर रही है रोज़ ही,क़ीमत यहाँ इंसान की
बढ़ रही है रोज़ ही,आफ़त यहाँ इंसान की
न सत्य है,न नीति है,
बस झूठ का बाज़ार है
न रीति है,न प्रीति है,
बस मौत का व्यापार है
श्मशान में भी लूट है,दुर्गति यहाँ इंसान की।
गिर रही है रोज़ ही,क़ीमत यहाँ इंसान की।।
बिक रहीं नकली दवाएँ,
ऑक्सीजन रो रही
इंसानियत कलपे यहाँ,
करुणा मनुज की सो रही
ज़िन्दगी दुख-दर्द में,शामत यहाँ इंसान की।
गिर रही है रोज़ ही,क़ीमत यहाँ इंसान की।।
 लाश के ठेके यहाँ हैं,
मँहगा है अब तो कफ़न
चार काँधे भी नहीं हैं,
रिश्ते-नाते हैं दफ़न
साँस है व्यापार में पीड़ित यहाँ इंसान की।
गिर रही है रोज़ ही,क़ीमत यहाँ इंसान की।।
जोंक बनकर आदमी,
चूसता पर ख़ून है
भावनाएँ बिक रही हैं,
हर तरफ तो सून है
बच सकेगी कैसे अब,क़ीमत यहाँ इंसान की।
गिर रही है रोज़ ही क़ीमत यहाँ इंसान की।।
— प्रो. (डॉ) शरद नारायण खरे

*प्रो. शरद नारायण खरे

प्राध्यापक व अध्यक्ष इतिहास विभाग शासकीय जे.एम.सी. महिला महाविद्यालय मंडला (म.प्र.)-481661 (मो. 9435484382 / 7049456500) ई-मेल[email protected]