गाँव की कहानी
गाँव से मतलब वह क्षेत्र, धरती का वह भाग जहाँ मेहनती लोग बसते हों, खेती हो, हरियाली हो, पेड़-पौधे हों, अन्न और फल हों। गाय-भैंस हों, दूध-घी हो। पक्षियों की चहचहाहट हो। खुले बहते झरने-नदियाँ हों। खुला आकाश हो, साफ हवा हो। जानवरों के लिए चारागाह हो। यानि मनुष्य ही नहीं, प्राणी मात्र के लिए जीने के साधन हों, जहाँ जाकर मन को आनन्द मिले वह स्थान गाँव है।
शहर तो बाद की बात हैं और प्रगति के प्रमाण हैं। परन्तु जीवित रहने के लिए हरएक शहर को इन्हीं गाँवों पर निर्भर रहना होता है शायद इसीलिए गाँवों को भारत की आत्मा कहा गया है। विदेशों का मुझे पता नहीं, पर अन्न और जल तो वहाँ भी खेतों से ही मिलता है, धरती से मिलता है। प्रत्येक जीव को उदरपूर्ति के लिए इन्हीं गाँवों की ओर देखना पड़ता है, इस हिसाब से कहा जाए तो गाँव सृष्टि के प्राण हैं।
गाँव सभ्यता के आदिकाल से ही नगरों की आवश्यकताओं की आपूर्ति करते रहे हैं यह बिल्कुल सत्य है और यह भी उतना ही सत्य है कि हमारे ग्रामीण क्षेत्रों के बालक ही पढ़-लिखकर नगरों की प्रगति में योगदान देते हैं। अतः दोनों ही कहीं न कहीं एक दूसरे के पूरक होते हैं। जहाँ अन्न-दूध और दूसरी बहुत सी चीजें हम गाँवों से लेते हैं वहीं हम शहरों को मिलों और उद्योगों के लिए कच्चा माल देकर वस्त्र और दूसरी बहुत-सी वस्तुएँ शहरों से लेते हैं। परन्तु यह सब कच्चा माल गाँवों से ही तो शहर को मिलता है। ऐसे में गाँव को देश की आत्मा कहना कुछ भी गलत नहीं है।
जहाँ तक हिमाचल के गाँवों की बात है तो किसी भी पहाड़ी प्रदेश में यह स्थिति निर्विवाद सत्य है कि पहाड़ी गाँवों की ड्डषि व्यवस्था वर्षा पर निर्भरकृहोती है। सिंचाई की व्यवस्था न होने के कारण पहाड़ों का खेतिहर अक्सर ही अभावों से जूझता है। कभी अति वर्षा के कारण फसलें नष्ट हो जाती हैं तो कभी अनावृष्टि और कभी ओलावृष्टि भी झेलनी पड़ जाती है। ऐसे में गाँव का अन्नदाता किसान किस हालत में है, यह देखना बहुत आवश्यक हो जाता है। यह बात आज भी सच है कि भारत की आत्मा गाँवों में बसती है, क्योंकि आप चाहे कितनी भी प्रगति क्यों न कर लें अन्न तो आपको गाँव ही देंगे।
मैं अपनी बात करूँ तो शायद मेरी अपनी आत्मा ही गाँव में बसती है। गाँव में पली-बढ़ी होने से गाँव मुझे बचपन से ही बेहद पसन्द हैं। इसीलिए विवाह के बाद मेरी हठ के कारण मेरे पति को गाँव में ज़मीन खरीदनी पड़ी, भले ही उनकी नौकरी के कारण मुझे जमीन की देखभाल के लिए गाँव में अकेले रहना पड़ा।
शिमला जिला की तहसील ;तब तक शिमला जिला नहीं बना था। उस समय यह जिला महासू कहलाता था। महासू भी दो भागों में बंटा था और रामपुर बुशहर का क्षेत्र अपर महासू कहलाता था। द्ध मैं जिस गाँव की बात करने जा रही हूँ वह रामपुर बुशहर से साढ़े सोलह किलोमीटर की दूरी पर सड़क के किनारे यह हिमाचल का मैदानों से दूरस्थ क्षेत्र था और जो ज़मीन हमने खरीदी थी, वह एकदम बंजर और चट्टानी धरती थी। इस गाँव का नाम गौरा था। इस समय गाँव तक आने-जाने के साधन भी नहीं थे। हाँ, एक खच्चर मार्ग अवश्य था।
जिसके विषय में कहा जाता था कि वह पंजाब के शासक, महाराजा रणजीत सिंह के सैनिकों ने अपनी सुविधा के लिए बनाया था। इस मार्ग का नाम हिमाचल तिब्बत मार्ग था। अर्थात् यह मार्ग रामपुर तक सीमित नहीं था। इसी मार्ग से महापंडित राहुल सांड्डत्यायन ने तीन बार पैदल तिब्बत तक की यात्रा की थी, जिसका वर्णन उनके यात्रा विवरणों में मिलता है। मैंने उनके यात्रा विवरण में गौरा ग्राम का नाम और गाँव में वे जिन लोगों से मिले उनके भी नाम पढ़े हैं। यह भी गाँव के बुजुर्गों से सुना है कि विश्व विख्यात ‘लवी मेला’ भी किसी समय इसी सड़क पर लगता था।
आज के दौर में भी किन्नौर के लोग भेड़-बकरी के रेवड़ लेकर शीतकाल में मैदानों की ओर जाते हैं ;हालांकि अब कम होते हैं पर चलते हैं।द्ध और रात-दिन चलते हैं, रात को कहीं भी डेरा लगाते। कभी-कभी सड़क की खुदाई में वहाँ कुछ पुराने बर्तन भी मिले हैं जो किसी डेरे वाले के दब गए लगते थे।
ऐसे में हो सकता है, कहीं चट्टानें खिसकने से कोई डेरा दब गया हो और यह उसका दबा हुआ सामान हो। यह बात सच इसलिए है कि वर्तमान भारत-तिब्बत मार्ग का तो सूत्रपात ही 1953 के बाद हुआ है। ;मेरे पति ने बताया था कि वे भी कमर में रस्सी बाँधकर छोटी कुदाली से पहाड़ पर उन स्थानों पर निशान लगाने जाते थे जहाँ से खुदाई के निर्देश मिलते थे और मात्र पाँव टिकाने भर का स्थान होता था।द्ध आवागमन का एकमात्र साधन होने से यह सड़क मार्ग बहुत महत्व रखता था और इसी सड़क के किनारे पर बसा था यह गौरा गाँव, जहाँ हमने जमीन खरीदी थी।
मुझे क्योंकि अपने गाँव की कहानी कहनी है, इसलिए यह विवरण बहुत आवश्यक था। यह गाँव बुशहर रियासत में आता है। इस गाँव का नाम गौरा क्यों पड़ा इसके पीछे एक कहानी बताई जाती है। कहा जाता है कि किसी समय ;सम्भवतया राजा वीरभद्र सिंह के पिता महाराजा पद्मसिंह के समय की बात है।द्ध यहाँ हैज़ा महामारी की तरह फैल गया और जब किसी तरह काबू में नहीं आया तो रियासत की रानी ;पूर्व मुख्यमंत्री श्री वीरभद्र सिंह जी की माता।द्ध ने अपने मायके ‘मण्डी’ की आराध्या गौरा देवी की मूर्ति को लाकर, यहाँ उसकी स्थापना की। उसके बाद कहा जाता है कि महामारी अपने आप ही समाप्त हो गई, तभी से गाँव का नाम गौरा पड़ गया। रियासतों का समय समाप्त हो गया। घीरे-धीरे अन्न की पैदावार वर्षा पर निर्भर होने और परिणाम स्वरूप अभाव में रहने के कारण गाँव का किसान बागवानी की ओर बढ़ रहा था।
लोगों ने विषम पथरीली ज़मीनों पर सेब, खुबानी, आड़ू, बादाम, नाशपाती, चेरी जैसे फलों के पेड़ लगाए। फल उत्पादन चूंकि अच्छे परिणाम दे रहा था अतः कुछ ही समय बाद पूरा का पूरा क्षेत्र ही बागवानी पर आधारित हो गया और आत्मनिर्भर भी हो गया।
यहाँ मैं एक बात और भी कहना चाहूँगी कि मैंने जो देखा और समझा है उस के अनुसार पहाड़ में लोग बेघर नहीं होते, क्योंकि कुछ सुविधाएँ सरकार की ओर से पहाड़ के किसानों को उन दिनों भी उपलब्ध थीं। मकान बनाने की लकड़ी के लिए सरकार बहुत कम कीमत में जंगल से चील और रई-तूष के पेड़ दे देती थी। गरीब से गरीब किसान अपने खेत से या जंगल से पत्थर लेकर अपने आप चिनाई करके अपने रहने की व्यवस्था अवश्य कर लेता था। मैं जिन दिनों की बात कर रही हूँ, उन दिनों छत के लिए भी पत्थर-स्लेट का उपयोग किया जाता था जिस पर कोई पैसा नहीं लगता था। मेरे खेत में भी छत के लिए स्लेट-पत्थरों की बहुत बड़ी चट्टान थी जहाँ से लोग पत्थर ले जाते थे। थोड़े-थोड़े पत्थर इकट्ठे करते हुए किसान अपना गुज़ारे लायक घर बना लेता था। ऐसे में बागवानी ने चमत्कार किया था। थोड़ी-सी भी जगह होने पर लोगों ने जितने भी हो सके सेब के पेड़ लगाए। गरीब किसान को रोजगार के नए अवसर उपलब्ध हुए। इसने क्षेत्र का कायाकल्प कर दिया। सेब के बाग में बारहों महीने काम रहता है। पेड़ों की देख-भाल के लिए दक्ष मालियों की आवश्यकता, फल तोड़ने से लेकर पेटियों में बंद करने और फिर बाजार में भेजने तक ढेरों कामों कोईबाग का मालिक अकेले नहीं कर सकता अतः यहाँ की अर्थ व्यवस्था नेपाल तक जुड़ गई। मीलों तक फैले सेबों के बाग हिमाचल से नेपाल तक लोगों के पेट भर रहे थे। जिधर देखो गोरखा मज़दूर दिखाई देते।
यहाँ तक तो सब ठीक था। अब तक मेरा गाँव एक समृ( गाँव बन चुका था। इस पट्टी का सेब अपने विशिष्ट स्वाद के कारण पहचाना जाने लगा था। गाँव-गाँव तक बिजली-पानी और सड़कें पहुँच गई थीं। तब तक परिवहन निगम की बसें भी चलने लग गई थीं और टैलीफोन की सुविधा से भी गाँव जुड़ गया था। इसी समय यहाँ नाथपा-झाखड़ी जल-विद्युत परियोजना का पदार्पण हुआ और गाँव की बरबादी का अध्याय लिखा जाने लगा।
यहाँ मुझे लगता है कि कुछ इस परियोजना के बारे में भी कहना उपयुक्त होगा। बाद में यह परियोजना संजय विद्युत परियोजना नाम से विख्यात हुई परन्तु नाथपा नाम के गाँव से प्ररम्भ करके झाखड़ी नाम के गाँव में समाप्त होने के कारण इस योजना का नाथपा-झाखड़ी परियोजना नाम रखा गया। यह योजना पूरी तरह पहाड़ को काटकर भीतर ही भीतर बनाई गई बरसों चलने वाली परियोजना थी। ज़ाहिर था कि इस परियोजना के लिए रोड़ी-बजरी भी लगनी ही थी। कहा जाता था कि यह एशिया की सबसे बड़ी परियोजना है। भारी मात्रा में निर्माण सामग्री की आवश्यकता थी। इसी निर्माण सामग्री की आपूर्ति हेतु, गाँव के ठीक सामने की एक पहाड़ी जो खनन के लिए स्वीड्डत हुई थी, निर्जन और पथरीली थी। उसी पर होने लगे भारी मात्रा में बारूदी विस्फोट। यह बात सन् 1980 के आस-पास की है। उस ज़माने में दस हज़ार रुपए का क्या मूल्य होता था यह तो आप लोग जानते ही हैं। दिन भर पहाड़ के सीने में अनगिनत छिद्र बनाए जाते और ठीक शाम पाँच बजे धमाके शुरू हो जाते। पता यह चला कि प्रतिदिन दस हज़ार रुपए मूल्य का बारूद इन धमाकों में काम में लाया जाता था।़
इतने अधिक बारूद के एक साथ विस्फोट के कारण पूरी घटी झूले की तरह हिलने लगती थी। पत्थर दूर-दूर तक उड़कर जाते। हमारा गाँव तोड़ी जाने वाली पहाड़ी के सबसे निकट था, परन्तु बात उसी गाँव तक नहीं रही बीसियों गाँव चपेट में आ रहे थे। संध्या पाँच बजते ही लगता जैसे भूकम्प आ गया हो। मेरी कईईतस्वीरें झटके के कारण शैल्फ़ पर से गिरकर टूट गई थीं।
धीरे-धीरे बारूद की धूल के कारण विषाक्त घास-पत्ती और पानी के प्रयोग से पशु-पक्षी मरने लगे। घरों में दरारें पड़ गईं जो हर शाम कुछ और गहरी हो जातीं। कुछ कमजोर घर टूट-बिखर भी गए। गरीब बेघर होने लगे। प्रदूषण के कारण वर्षा प्रभावित हुई और बहुत कम होने लगी तो पानी की कमी से सेब उद्योग पर भी इसका प्रभाव पड़ना अवश्यम्भावी था। प्रतिदिन के भूकम्प और अनावृष्टि से पेड़ सूखने लगे, सेब उद्योग, खेती और पशुपालन से जुड़े लोग बेरोजगार होने लगे।
पूरे क्षेत्र में हाहाकार मच गया। जनता के प्रतिनिधि मण्डल सरकार पर दबाव बनाने लगे लेकिन अरबों-खरबों की जल-विद्युत योजना बंद तो नहीं की जा सकती थी। अतः जनता को मुआवजा देने की बात होने लगी। संघर्ष लम्बा चला और अंततः जनता को बहलाने के लिए बहुत थोड़ी मात्रा में घनराशि सहायतार्थ दी गई। वह भी अधिकतर क्षेत्र के नेताओं और प्रभावशाली लोगों में वितरित हुई बेघर निर्धन किसान को पाँच-दस हज़ार लेकर संतोष करना पड़ा। ऐसे समय में हम या हमारे बच्चे गिरमिटिया नहीं बनते तो क्या करते? पलायन के अतिरिक्त हमारे पास क्या चारा था? सड़कें, बिजली और टैलीफोन हमें रोटी नहीं दे सकते थे।
उस समय खण्ड विकास कार्यालयों की बड़ी भूमिका रही। इन विकास खण्डों ने गाँव के किसानों की महिला मण्डलों और युवक मण्डलों के माध्यम से बहुत सहायता की। मैं उन दिनों गौरा महिला मण्डल की अध्यक्ष थी। रामपुर बुशहर विकास खण्ड से हमें सब्जियों के बीज, खाद और कीटाणु नाशक बिना मूल्य के मिलते रहते थे जो महिलाओं में बाँट दिए जाते। जिनसे कुछ सहारा तो अवश्य मिलता था लेकिन बिना पानी के सब्जियाँ भी कैसे उगाते क्योंकि गाँव के जलस्रोत भी सूखने लगे थे।
धीरे-धीरे सारे बाग सूख गए और जल-विद्युत परियोजना भी पूरी हो गई। पहाड़ तोड़ना बंद हो गया है। अब न तो वहाँ धमाके हैं न भूकम्प। लोगों ने फिर से बाग लगाए, अब फिर वर्षा होने लगी है बर्फ पड़ने लगी है इलाका फिर हरा-भरा हो गया है। अब मैं भी गिरमिटिया हूँ। पर खुश हूँ कि मेरा गाँव हरा-भरा है, सरकार क्या करेगी? वह तो नेताओं और गणमान्यों की जेब में पड़ी होती है। ऐसे में यदि आम किसान के काम कोई आता है तो वह स्वयं सेवी संस्थायें ही हैं या किसान का अपना विवेक, हिम्मत और श्रम। मेरा मानना है कि किसान इन तीन पर भरोसा करे तो उसे सरकारी अनुदान की आवश्यकता ही नहीं है।