संस्मरण

गाँव की कहानी

गाँव से मतलब वह क्षेत्र, धरती का वह भाग जहाँ मेहनती लोग बसते हों, खेती हो, हरियाली हो, पेड़-पौधे हों, अन्न और फल हों। गाय-भैंस हों, दूध-घी हो। पक्षियों की चहचहाहट हो। खुले बहते झरने-नदियाँ हों। खुला आकाश हो, साफ हवा हो। जानवरों के लिए चारागाह हो। यानि मनुष्य ही नहीं, प्राणी मात्र के लिए जीने के साधन हों, जहाँ जाकर मन को आनन्द मिले वह स्थान गाँव है।
शहर तो बाद की बात हैं और प्रगति के प्रमाण हैं। परन्तु जीवित रहने के लिए हरएक शहर को इन्हीं गाँवों पर निर्भर रहना होता है शायद इसीलिए गाँवों को भारत की आत्मा कहा गया है। विदेशों का मुझे पता नहीं, पर अन्न और जल तो वहाँ भी खेतों से ही मिलता है, धरती से मिलता है। प्रत्येक जीव को उदरपूर्ति के लिए इन्हीं गाँवों की ओर देखना पड़ता है, इस हिसाब से कहा जाए तो गाँव सृष्टि के प्राण हैं।
गाँव सभ्यता के आदिकाल से ही नगरों की आवश्यकताओं की आपूर्ति करते रहे हैं यह बिल्कुल सत्य है और यह भी उतना ही सत्य  है कि हमारे ग्रामीण क्षेत्रों के बालक ही पढ़-लिखकर नगरों की प्रगति में योगदान देते हैं। अतः दोनों ही कहीं न कहीं एक दूसरे के पूरक होते हैं। जहाँ अन्न-दूध और दूसरी बहुत सी चीजें हम गाँवों से लेते हैं वहीं हम शहरों को मिलों और उद्योगों के लिए कच्चा माल देकर वस्त्र और दूसरी बहुत-सी वस्तुएँ शहरों से लेते हैं। परन्तु यह सब कच्चा माल गाँवों से ही तो शहर को मिलता है। ऐसे में गाँव को देश की आत्मा कहना कुछ भी गलत नहीं है।
जहाँ तक हिमाचल के गाँवों की बात है तो किसी भी पहाड़ी प्रदेश में यह स्थिति निर्विवाद सत्य है कि पहाड़ी गाँवों की ड्डषि व्यवस्था वर्षा पर निर्भरकृहोती है। सिंचाई की व्यवस्था न होने के कारण पहाड़ों का खेतिहर अक्सर ही अभावों से जूझता है। कभी अति वर्षा के कारण फसलें नष्ट हो जाती हैं तो कभी अनावृष्टि और कभी ओलावृष्टि भी झेलनी पड़ जाती है। ऐसे में गाँव का अन्नदाता किसान किस हालत में है, यह देखना बहुत आवश्यक हो जाता है। यह बात आज भी सच है कि भारत की आत्मा गाँवों में बसती है, क्योंकि आप चाहे कितनी भी प्रगति क्यों न कर लें अन्न तो आपको गाँव ही देंगे।
मैं अपनी बात करूँ तो शायद मेरी अपनी आत्मा ही गाँव में बसती है। गाँव में पली-बढ़ी होने से गाँव मुझे बचपन से ही बेहद पसन्द हैं। इसीलिए विवाह के बाद मेरी हठ के कारण मेरे पति को गाँव में ज़मीन खरीदनी पड़ी, भले ही उनकी नौकरी के कारण मुझे जमीन की देखभाल के लिए गाँव में अकेले रहना पड़ा।
शिमला जिला की तहसील ;तब तक शिमला जिला नहीं बना था। उस समय यह जिला महासू कहलाता था। महासू भी दो भागों में बंटा था और रामपुर बुशहर का क्षेत्र अपर महासू कहलाता था। द्ध मैं जिस गाँव की बात करने जा रही हूँ वह रामपुर बुशहर से साढ़े सोलह किलोमीटर की दूरी पर सड़क के किनारे यह हिमाचल का मैदानों से दूरस्थ क्षेत्र था और जो ज़मीन हमने खरीदी थी, वह एकदम बंजर और चट्टानी धरती थी। इस गाँव का नाम गौरा था। इस समय गाँव तक आने-जाने के साधन भी नहीं थे। हाँ, एक खच्चर मार्ग अवश्य था।
जिसके विषय में कहा जाता था कि वह पंजाब के शासक, महाराजा रणजीत सिंह के सैनिकों ने अपनी सुविधा के लिए बनाया था। इस मार्ग का नाम हिमाचल तिब्बत मार्ग था। अर्थात् यह मार्ग रामपुर तक सीमित नहीं था। इसी मार्ग से महापंडित राहुल सांड्डत्यायन ने तीन बार पैदल तिब्बत तक की यात्रा की थी, जिसका वर्णन उनके यात्रा विवरणों में मिलता है। मैंने उनके यात्रा विवरण में गौरा ग्राम का नाम और गाँव में वे जिन लोगों से मिले उनके भी नाम पढ़े हैं। यह भी गाँव के बुजुर्गों से सुना है कि विश्व विख्यात ‘लवी मेला’ भी किसी समय इसी सड़क पर लगता था।
आज के दौर में भी किन्नौर के लोग भेड़-बकरी के रेवड़ लेकर शीतकाल में मैदानों की ओर जाते हैं ;हालांकि अब कम होते हैं पर चलते हैं।द्ध और रात-दिन चलते हैं, रात को कहीं भी डेरा लगाते। कभी-कभी सड़क की खुदाई में वहाँ कुछ पुराने बर्तन भी मिले हैं जो किसी डेरे वाले के दब गए लगते थे।
ऐसे में हो सकता है, कहीं चट्टानें खिसकने से कोई डेरा दब गया हो और यह उसका दबा हुआ सामान हो। यह बात सच इसलिए है कि वर्तमान भारत-तिब्बत मार्ग का तो सूत्रपात ही 1953 के बाद हुआ है। ;मेरे पति ने बताया था कि वे भी कमर में रस्सी बाँधकर छोटी कुदाली से पहाड़ पर उन स्थानों पर निशान लगाने जाते थे जहाँ से खुदाई के निर्देश मिलते थे और मात्र पाँव टिकाने भर का स्थान होता था।द्ध आवागमन का एकमात्र साधन होने से यह सड़क मार्ग बहुत महत्व रखता था और इसी सड़क के किनारे पर बसा था यह गौरा गाँव, जहाँ हमने जमीन खरीदी थी।
मुझे क्योंकि अपने गाँव की कहानी कहनी है, इसलिए यह विवरण बहुत आवश्यक था। यह गाँव बुशहर रियासत में आता है। इस गाँव का नाम गौरा क्यों पड़ा इसके पीछे एक कहानी बताई जाती है। कहा जाता है कि किसी समय ;सम्भवतया राजा वीरभद्र सिंह के पिता महाराजा पद्मसिंह के समय की बात है।द्ध यहाँ हैज़ा महामारी की तरह फैल गया और जब किसी तरह काबू में नहीं आया तो रियासत की रानी ;पूर्व मुख्यमंत्री श्री वीरभद्र सिंह जी की माता।द्ध ने अपने मायके ‘मण्डी’ की आराध्या गौरा देवी की मूर्ति को लाकर, यहाँ उसकी स्थापना की। उसके बाद कहा जाता है कि महामारी अपने आप ही समाप्त हो गई, तभी से गाँव का नाम गौरा पड़ गया। रियासतों का समय समाप्त हो गया। घीरे-धीरे अन्न की पैदावार वर्षा पर निर्भर होने और परिणाम स्वरूप अभाव में रहने के कारण गाँव का किसान बागवानी की ओर बढ़ रहा था।
लोगों ने विषम पथरीली ज़मीनों पर सेब, खुबानी, आड़ू, बादाम, नाशपाती, चेरी जैसे फलों के पेड़ लगाए। फल उत्पादन चूंकि अच्छे परिणाम दे रहा था अतः कुछ ही समय बाद पूरा का पूरा क्षेत्र ही बागवानी पर आधारित हो गया और आत्मनिर्भर भी हो गया।
यहाँ मैं एक बात और भी कहना चाहूँगी कि मैंने जो देखा और समझा है उस के अनुसार पहाड़ में लोग बेघर नहीं होते, क्योंकि कुछ सुविधाएँ सरकार की ओर से पहाड़ के किसानों को उन दिनों भी उपलब्ध थीं। मकान बनाने की लकड़ी के लिए सरकार बहुत कम कीमत में जंगल से चील और रई-तूष के पेड़ दे देती थी। गरीब से गरीब किसान अपने खेत से या जंगल से पत्थर लेकर अपने आप चिनाई करके अपने रहने की व्यवस्था अवश्य कर लेता था। मैं जिन दिनों की बात कर रही हूँ, उन दिनों छत के लिए भी पत्थर-स्लेट का उपयोग  किया जाता था जिस पर कोई पैसा नहीं लगता था। मेरे खेत में भी छत के लिए स्लेट-पत्थरों की बहुत बड़ी चट्टान थी जहाँ से लोग पत्थर ले जाते थे। थोड़े-थोड़े पत्थर इकट्ठे करते हुए किसान अपना गुज़ारे लायक घर बना लेता था। ऐसे में बागवानी ने चमत्कार किया था। थोड़ी-सी भी जगह होने पर लोगों ने जितने भी हो सके सेब के पेड़ लगाए। गरीब किसान को रोजगार के नए अवसर उपलब्ध हुए। इसने क्षेत्र का कायाकल्प कर दिया। सेब के बाग में बारहों महीने काम रहता है। पेड़ों की देख-भाल के लिए दक्ष मालियों की आवश्यकता, फल तोड़ने से लेकर पेटियों में बंद करने और फिर बाजार में भेजने तक ढेरों कामों कोईबाग का मालिक अकेले नहीं कर सकता अतः यहाँ की अर्थ व्यवस्था नेपाल तक जुड़ गई। मीलों तक फैले सेबों के बाग हिमाचल से नेपाल तक लोगों के पेट भर रहे थे। जिधर देखो गोरखा मज़दूर दिखाई देते।
यहाँ तक तो सब ठीक था। अब तक मेरा गाँव एक समृ( गाँव बन चुका था। इस पट्टी का सेब अपने विशिष्ट स्वाद के कारण पहचाना जाने लगा था। गाँव-गाँव तक बिजली-पानी और सड़कें पहुँच गई थीं। तब तक परिवहन निगम की बसें भी चलने लग गई थीं और टैलीफोन की सुविधा से भी गाँव जुड़ गया था। इसी समय यहाँ नाथपा-झाखड़ी जल-विद्युत परियोजना का पदार्पण हुआ और गाँव की बरबादी का अध्याय लिखा जाने लगा।
यहाँ मुझे लगता है कि कुछ इस परियोजना के बारे में भी कहना उपयुक्त होगा। बाद में यह परियोजना संजय विद्युत परियोजना नाम से विख्यात हुई परन्तु नाथपा नाम के गाँव से प्ररम्भ करके झाखड़ी नाम के गाँव में समाप्त होने के कारण इस योजना का नाथपा-झाखड़ी परियोजना नाम रखा गया। यह योजना पूरी तरह पहाड़ को काटकर भीतर ही भीतर बनाई गई बरसों चलने वाली परियोजना थी। ज़ाहिर था कि इस परियोजना के लिए रोड़ी-बजरी भी लगनी ही थी। कहा जाता था कि यह एशिया की सबसे बड़ी परियोजना है। भारी मात्रा में निर्माण सामग्री की आवश्यकता थी। इसी निर्माण सामग्री की आपूर्ति हेतु, गाँव के ठीक सामने की एक पहाड़ी जो खनन के लिए स्वीड्डत हुई थी, निर्जन और पथरीली थी। उसी पर होने लगे भारी मात्रा में बारूदी विस्फोट। यह बात सन् 1980 के आस-पास की है। उस ज़माने में दस हज़ार रुपए का क्या मूल्य होता था यह तो आप लोग जानते ही हैं। दिन भर पहाड़ के सीने में अनगिनत छिद्र बनाए जाते और ठीक शाम पाँच बजे धमाके शुरू हो जाते। पता यह चला कि प्रतिदिन दस हज़ार रुपए मूल्य का बारूद इन धमाकों में काम में लाया जाता था।़
इतने अधिक बारूद के एक साथ विस्फोट के कारण पूरी घटी झूले की तरह हिलने लगती थी। पत्थर दूर-दूर तक उड़कर जाते। हमारा गाँव तोड़ी जाने वाली पहाड़ी के सबसे निकट था, परन्तु बात उसी गाँव तक नहीं रही बीसियों गाँव चपेट में आ रहे थे। संध्या पाँच बजते ही लगता जैसे भूकम्प आ गया हो। मेरी कईईतस्वीरें झटके के कारण शैल्फ़ पर से गिरकर टूट गई थीं।
धीरे-धीरे बारूद की धूल के कारण विषाक्त घास-पत्ती और पानी के प्रयोग से पशु-पक्षी मरने लगे। घरों में दरारें पड़ गईं जो हर शाम कुछ और गहरी हो जातीं। कुछ कमजोर घर टूट-बिखर भी गए। गरीब बेघर होने लगे। प्रदूषण के कारण वर्षा प्रभावित हुई और बहुत कम होने लगी तो पानी की कमी से सेब उद्योग पर भी इसका प्रभाव पड़ना अवश्यम्भावी था। प्रतिदिन के भूकम्प और अनावृष्टि से पेड़ सूखने लगे, सेब उद्योग, खेती और पशुपालन से जुड़े लोग बेरोजगार होने लगे।
पूरे क्षेत्र में हाहाकार मच गया। जनता के प्रतिनिधि मण्डल सरकार पर दबाव बनाने लगे लेकिन अरबों-खरबों की जल-विद्युत योजना बंद तो नहीं की जा सकती थी। अतः जनता को मुआवजा देने की बात होने लगी। संघर्ष लम्बा चला और अंततः जनता को बहलाने के लिए बहुत थोड़ी मात्रा में घनराशि सहायतार्थ दी गई। वह भी अधिकतर क्षेत्र के नेताओं और प्रभावशाली लोगों में वितरित हुई बेघर निर्धन किसान को पाँच-दस हज़ार लेकर संतोष करना पड़ा। ऐसे समय में हम या हमारे बच्चे गिरमिटिया नहीं बनते तो क्या करते? पलायन के अतिरिक्त हमारे पास क्या चारा था? सड़कें, बिजली और टैलीफोन हमें रोटी नहीं दे सकते थे।
उस समय खण्ड विकास कार्यालयों की बड़ी भूमिका रही। इन विकास खण्डों ने गाँव के किसानों की महिला मण्डलों और युवक मण्डलों के माध्यम से बहुत सहायता की। मैं उन दिनों गौरा महिला मण्डल की अध्यक्ष थी।  रामपुर बुशहर विकास खण्ड से हमें सब्जियों के बीज, खाद और कीटाणु नाशक बिना मूल्य के मिलते रहते थे जो महिलाओं में बाँट दिए जाते। जिनसे कुछ सहारा तो  अवश्य मिलता था लेकिन बिना पानी के सब्जियाँ भी कैसे उगाते क्योंकि गाँव  के जलस्रोत भी सूखने लगे थे।
धीरे-धीरे सारे बाग सूख गए और जल-विद्युत परियोजना भी पूरी हो गई। पहाड़ तोड़ना बंद हो गया है। अब न तो वहाँ धमाके हैं न भूकम्प। लोगों ने फिर से बाग लगाए, अब फिर वर्षा होने लगी है बर्फ पड़ने लगी है इलाका फिर हरा-भरा हो गया है। अब मैं भी गिरमिटिया हूँ। पर खुश हूँ कि मेरा गाँव हरा-भरा है, सरकार क्या करेगी? वह तो नेताओं और गणमान्यों की जेब में पड़ी होती है। ऐसे में यदि आम किसान के काम कोई आता है तो वह स्वयं सेवी संस्थायें ही हैं या किसान का अपना विवेक, हिम्मत और श्रम। मेरा मानना है कि किसान इन तीन पर भरोसा करे तो उसे सरकारी अनुदान की आवश्यकता ही नहीं है।

*आशा शैली

जन्मः-ः 2 अगस्त 1942 जन्मस्थानः-ः‘अस्मान खट्टड़’ (रावलपिण्डी, अब पाकिस्तान में) मातृभाषाः-ःपंजाबी शिक्षा ः-ललित महिला विद्यालय हल्द्वानी से हाईस्कूल, प्रयाग महिलाविद्यापीठ से विद्याविनोदिनी, कहानी लेखन महाविद्यालय अम्बाला छावनी से कहानी लेखन और पत्रकारिता महाविद्यालय दिल्ली से पत्रकारिता। लेखन विधाः-ः कविता, कहानी, गीत, ग़ज़ल, शोधलेख, लघुकथा, समीक्षा, व्यंग्य, उपन्यास, नाटक एवं अनुवाद भाषाः-ः हिन्दी, उर्दू, पंजाबी, पहाड़ी (महासवी एवं डोगरी) एवं ओडि़या। प्रकाशित पुस्तकंेः-1.काँटों का नीड़ (काव्य संग्रह), (प्रथम संस्करण 1992, द्वितीय 1994, तृतीय 1997) 2.एक और द्रौपदी (काव्य संग्रह 1993) 3.सागर से पर्वत तक (ओडि़या से हिन्दी में काव्यानुवाद) प्रकाशन वर्ष (2001) 4.शजर-ए-तन्हा (उर्दू ग़ज़ल संग्रह-2001) 5.एक और द्रौपदी का बांग्ला में अनुवाद (अरु एक द्रौपदी नाम से 2001), 6.प्रभात की उर्मियाँ (लघुकथा संग्रह-2005) 7.दादी कहो कहानी (लोककथा संग्रह, प्रथम संस्करण-2006, द्वितीय संस्करण-2009), 8.गर्द के नीचे (हिमाचल के स्वतन्त्रता सेनानियों की जीवनियाँ-2007), 9.हमारी लोक कथाएं भाग एक से भाग छः तक (2007) 10.हिमाचल बोलता है (हिमाचल कला-संस्कृति पर लेख-2009) 11. सूरज चाचा (बाल कविता संकलन-2010) 12.पीर पर्वत (गीत संग्रह-2011) 13. आधुनिक नारी कहाँ जीती कहाँ हारी (नारी विषयक लेख-2011) 14. ढलते सूरज की उदासियाँ (कहानी संग्रह-2013) 15 छाया देवदार की (उपन्यास-2014) 16 द्वंद के शिखर, (कहानी संग्रह) प्रेस में प्रकाशनाधीन पुस्तकेंः-द्वंद के शिखर, (कहानी संग्रह), सुधि की सुगन्ध (कविता संग्रह), गीत संग्रह, बच्चो सुनो बाल उपन्यास व अन्य साहित्य, वे दिन (संस्मरण), ग़ज़ल संग्रह, ‘हण मैं लिक्खा करनी’ पहाड़ी कविता संग्रह, ‘पारस’ उपन्यास आदि उपलब्धियाँः-देश-विदेश की पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित, आकाशवाणी एवं दूरदर्शन के विभिन्न केन्द्रों से निरंतर प्रसारण, भारत के विभिन्न प्रान्तों के साहित्य मंचों से निरंतर काव्यपाठ, विचार मंचों द्वारा संचालित विचार गोष्ठियों में प्रतिभागिता। सम्मानः-पत्रकारिता द्वारा दलित गतिविधियों के लिए अ.भा. दलित साहित्य अकादमी द्वारा अम्बेदकर फैलोशिप (1992), साहित्य शिक्षा कला संस्कृति अकादमी परियाँवां (प्रतापगढ़) द्वारा साहित्यश्री’ (1994) अ.भा. दलित साहित्य अकादमी दिल्ली द्वारा अम्बेदकर ‘विशिष्ट सेवा पुरुस्कार’ (1994), शिक्षा साहित्य कला विकास समिति बहराइच द्वारा ‘काव्य श्री’, कजरा इण्टरनेशनल फि़ल्मस् गोंडा द्वारा ‘कलाश्री (1996), काव्यधारा रामपुर द्वारा ‘सारस्वत’ उपाधि (1996), अखिल भारतीय गीता मेला कानपुर द्वारा ‘काव्यश्री’ के साथ रजत पदक (1996), बाल कल्याण परिषद द्वारा सारस्वत सम्मान (1996), भाषा साहित्य सम्मेलन भोपाल द्वारा ‘साहित्यश्री’ (1996), पानीपत अकादमी द्वारा आचार्य की उपाधि (1997), साहित्य कला संस्थान आरा-बिहार से साहित्य रत्नाकर की उपाधि (1998), युवा साहित्य मण्डल गा़जि़याबाद से ‘साहित्य मनीषी’ की मानद उपाधि (1998), साहित्य शिक्षा कला संस्कृति अकादमी परियाँवां से आचार्य ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी’ सम्मान (1998), ‘काव्य किरीट’ खजनी गोरखपुर से (1998), दुर्गावती फैलोशिप’, अ.भ. लेखक मंच शाहपुर (जयपुर) से (1999), ‘डाकण’ कहानी पर दिशा साहित्य मंच पठानकोट से (1999) विशेष सम्मान, हब्बा खातून सम्मान ग़ज़ल लेखन के लिए टैगोर मंच रायबरेली से (2000)। पंकस (पंजाब कला संस्कृति) अकादमी जालंधर द्वारा कविता सम्मान (2000) अनोखा विश्वास, इन्दौर से भाषा साहित्य रत्नाकर सम्मान (2006)। बाल साहित्य हेतु अभिव्यंजना सम्मान फर्रुखाबाद से (2006), वाग्विदाम्बरा सम्मान हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग से (2006), हिन्दी भाषा भूषण सम्मान श्रीनाथद्वारा (राज.2006), बाल साहित्यश्री खटीमा उत्तरांचल (2006), हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा महादेवी वर्मा सम्मान, (2007) में। हिन्दी भाषा सम्मेलन पटियाला द्वारा हज़ारी प्रसाद द्विवेदी सम्मान (2008), साहित्य मण्डल श्रीनाथद्वारा (राज.) सम्पादक रत्न (2009), दादी कहो कहानी पुस्तक पर पं. हरिप्रसाद पाठक सम्मान (मथुरा), नारद सम्मान-हल्द्वानी जिला नैनीताल द्वारा (2010), स्वतंत्रता सेनानी दादा श्याम बिहारी चैबे स्मृति सम्मान (भोपाल) म.प्रदेश. तुलसी साहित्य अकादमी द्वारा (2010)। विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ द्वारा भारतीय भाषा रत्न (2011), उत्तराखण्ड भाषा संस्थान द्वारा सम्मान (2011), अखिल भारतीय पत्रकारिता संगठन पानीपत द्वारा पं. युगलकिशोर शुकुल पत्रकारिता सम्मान (2012), (हल्द्वानी) स्व. भगवती देवी प्रजापति हास्य-रत्न सम्मान (2012) साहित्य सरिता, म. प्र. पत्रलेखक मंच बेतूल। भारतेंदु साहित्य सम्मान (2013) कोटा, साहित्य श्री सम्मान(2013), हल्दीघाटी, ‘काव्यगौरव’ सम्मान (2014) बरेली, आषा षैली के काव्य का अनुषीलन (लघुषोध द्वारा कु. मंजू षर्मा, षोध निदेषिका डाॅ. प्रभा पंत, मोतीराम-बाबूराम राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय हल्द्वानी )-2014, सम्पादक रत्न सम्मान उत्तराखण्ड बाल कल्याण साहित्य संस्थान, खटीमा-(2014), हिमाक्षरा सृजन अलंकरण, धर्मषाला, हिमाचल प्रदेष में, हिमाक्षरा राश्ट्रीय साहित्य परिशद द्वारा (2014), सुमन चतुर्वेदी सम्मान, हिन्दी साहित्य सम्मेलन भोपाल द्वारा (2014), हिमाचल गौरव सम्मान, बेटियाँ बचाओ एवं बुषहर हलचल (रामपुर बुषहर -हिमाचल प्रदेष) द्वारा (2015)। उत्तराखण्ड सरकार द्वारा प्रदत्त ‘तीलू रौतेली’ पुरस्कार 2016। सम्प्रतिः-आरती प्रकाशन की गतिविधियों में संलग्न, प्रधान सम्पादक, हिन्दी पत्रिका शैल सूत्र (त्रै.) वर्तमान पताः-कार रोड, बिंदुखत्ता, पो. आॅ. लालकुआँ, जिला नैनीताल (उत्तराखण्ड) 262402 मो.9456717150, 07055336168 [email protected]