लघुकथा

बुनावट

मीनल यों तो बहुत मिलनसार थी, पर उसकी थोड़ी-सी ईर्ष्यालुता ऐसे थी जैसे चंद्रमा की खूबसूरती में छोटा-सा दाग!
उसके पड़ोसी हितेश के परिवार में चार बहनें थीं और चार भाई. कोई भी शादी-गमी हो आठों भाई-बहन सपरिवार इकट्ठे होकर खुशी को द्विगुणित-अगणित कर देते और गम को गला देते. मीनल के लिए बस यही बात अखरने वाली थी. उसके भाई-बहन तो उसको घास भी नहीं डालते थे.
हितेश के एक जीजा जी का शरीर शांत हुआ तो बहिन का गम गलत करने के लिए एक बहन और दो भाई-भाभी तुरंत रवाना हो गए. मीनल को यह भी गवारा नहीं हुआ.
“जाने वाला तो चला गया, अब इतने लोग क्या करने गए हैं वहां! एक चला जाता, सारे रस्मो-रिवाज पूरे करके आता.” हितेश की मां को पट्टी पढ़ाई जा रही थी.
“सबको अपना-अपना फर्ज निभाना चाहिए, मैंने ही उनको सिखाया है. दो भाई-भाभी तीजे तक वहां रहेंगे, बाकी दोनों भाई-भाभी तेरहवीं पर मायके का फर्ज निभाने जाएंगे.” मीनल को यह बात तो और भी नहीं जंची, पर इसके आगे क्या कहती!
वक्त हर दिन एक-सा नहीं रहता. एक सड़क दुर्घटना में मीनल के पति चल बसे. मीनल के ऊपर दुःख का पहाड़ टूट पड़ा. गम बांटने के लिए मायके से कौन आएगा! उसने ही तो रस्ता बंद कर दिया था.
अपनी कपड़ों की फैक्टरी मातहतों के सुपुर्द कर हितेश मदद को आ गए. सबसे पहले तो उन्होंने मीनल के भाई-बहन को फोन करके कहा- “मीनल आंटी के ऊपर गाज गिर गई है, वे होश में नहीं हैं. वैसे भी यह समय निमंत्रण देने का नहीं है. हम पड़ोसी तो सब संभाल रहे हैं, आप लोग तुरंत आकर उनका सहारा बनो.”
सचमुच उन्होंने आकर सब संभाल लिया और मीनल का सुदृढ़ संबल बने.
कदम-कदम पर उनको हितेश से मार्गदर्शन लेते देख मीनल समझ गई कि वे हितेश के ही सिखाए-पढ़ाए हैं.
“कपड़ों की बुनावट करते-करते रिश्तों की बुनावट करना कोई तुमसे सीखे हितेश बेटा!” उसके ईर्ष्यालुपन ने कृतज्ञता के पीछे मुहं छुपा लिया था.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244