ग़ज़ल – अच्छी नहीं लगती
जला दे ज़िंदगी जो बिजलियाँ अच्छी नहीं लगती |
बसेरों को मिटाती आँधियाँ अच्छी नहीं लगती |
दिलों में प्यार भर लो प्यार के छेड़ो तराने फ़िर,
कलेजा चीर दे वो बोलियाँ अच्छी नहीं लगती |
जफा के दाग से दामन सदा रंगते रहे हो तुम-
गुनाहों से भरी ये खूबियाँ अच्छी नहीं लगती |
नज़ारे दूर हैं इतने बहारों ने है मुँह मोड़ा-
दरो दीवार सूने खिड़कियाँ अच्छी नहीं लगती |
सही जाये न अब दूरी कहाँ हो अब चले आओ-
डसे है रात काली दूरियाँ अच्छी नहीं लगती |
खिला है चाँद पूनम का सितारे खिलखिलाते हैं ,
नसीबा सो रहा अटखेलियाँ अच्छी नहीं लगती |
फिज़ाओं मे घुली खुशबू से मन मेरा बहकता है-
गुलों पर बैठती अब तितलियाँ अच्छी नहीं लगती |
नयन में नेह का काजल लगाया बाल में गजरा –
‘मृदुल’ये रात की रानाइयाँ अच्छी नहीं लगती |
— मंजूषा श्रीवास्तव “मृदुल”