कविता – जियारत
बरसों बाद फिर गया हूं
मैं उसी जगह
यहां से शुरू किया था जिंदगी का सफर
एक बाईस वर्षीय युवा ने ।
कई मासूम चेहरे
उभर आए मानस पटल पर
बूढ़ी अम्मा के साथ बैठकर फिर
गुड़गुड़ाया हुक्का
फिर
बातें की दुनिया भर की ।
कंडे ( रिज ) पर घूमा
भेड़ें चराती युवती से मिला
जिसके सहचर्य से
यौवन की सुगंध आया करती थी ।
मेला देखा
पकोड़े खाए सूजी की बर्फी ले आया घर
कई दिनों से मेले की बर्फी
जो रखी थी मेरे लिए संभाल कर
फिर जी भर कर खाई जैसे कृष्ण ने
सुदामा के रखे सत्तू खाए हों ।
मेरे यहां से चले जाने के बारे सुन
रोते हुए बच्चे देखे
और मैं भी रोया
और भी बहुत कुछ देखा ।
जब करना हो हमसे प्यार
हमारी गली आ जाना
बड़ी दूर
भेड़ें चराती गड़रिए की बेटी से सुना
कानों से उतरकर मीठा स्वर
दिल में घुलता रहा खरामा खरामा ।
वर्षों बाद गया था
जैसे कोई जाता है जियारत करने
सोचा कुछ छूट न जाए
फिर भी बहुत सी महकती यादें छूट ही गई
अब पता नहीं
वहां फिर कभी जाना हो न हो ।।
— अशोक दर्द