गीतिका
गाने का ये गीत नहीं है।
जब तक उर में तीत नहीं है।।
रटते नित्य सनातन मुख से,
जन – जन से जन – प्रीत नहीं है।
ये बनियां , ये ठाकुर, बाँभन,
उचित भेद की रीत नहीं है।
हिंदू ही हिंदू का काँटा,
होनी ऐसे जीत नहीं है।
छोट – बड़ाई छुआछूत का,
गाना अब संगीत नहीं है।
फिर गुलाम होने के रँग – ढँग,
हिंदू के उर भीत नहीं है।
देश निरंतर घटता जाए,
तुमको लेश प्रतीत नहीं है।
होगी दास पाँचवीं पीढ़ी,
तेरी शुभदा नीत नहीं है।
‘शुभम्’ न तब तुम जिंदा होंगे,
माटी अभी पलीत नहीं है।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम्