झूला
विनय और तनवी एक दूसरे के पूरक थे। क्या मजाल कि बिन अपने पापा की मर्जी के तनवी कोई तिनका भी उठा ले। पर.. वही तनवी आजकल कुछ कुछ बदलने लगी थी। नहीं, यह सोलह बरस वाली उम्र का तकाज़ा नहीं था। बात बस इतनी थी कि 15 साल पहले उसकी माँ, जो उसके पिता से तलाक़ लेकर विदेश बस गई थी, उसे अब न जाने क्यों अपनी बिटिया की याद आने लगी थी। इसलिए यदाकदा, वो तनवी को फोन कर लेती थी। तनवी को भी अपनी माँ से बात करना अच्छा लगता था। शायद… दिल के कोने में माँ की कमी रह गई थी, जो उसके फोन से पूरी होने लगी थी।
कुछ दिन पहले ही रुपाली ने भारत आने का प्रोग्राम बनाया था।
आज विनय जैसे ही ऑफिस जाने को तैयार हुआ, तनवी बोली, “पापा, याद है न कि आज माँ से मिलने होटल जाना है, जल्दी घर आ जाना?” माँ से मिलने की खुशी उसके हावभाव से ही झलक रही थी।
विनय, “हां बेटा! शाम चार बजे आ जाऊंगा।”
मना करने का तो कोई सवाल ही न था। कहने को तो विनय ने बोल दिया, पर अब कहीं न कहीं उसके दिल में बेटी को खोने का डर भी सताने लगा था। “क्या होगा, अगर रुपाली तनवी को अपने साथ ले गई?” नहीं नहीं….अपने ख्यालों से भी वो डरने लगा था।
शाम को 4 बजे दोनों होटल पहुंच गए थे। हमेशा की तरह रुपाली बेहद खूबसूरत लग रही थी। आगे बढ़ कर उसने तनवी को गले लगा लिया। थोड़ी देर बातचीत के बाद वो बोली, “विनय! अगर आपको एतराज न हो तो क्या मैं तनवी को आज रात अपने साथ रख सकती हूं?”
इससे पहले कि विनय कुछ बोलता, तनवी बोल उठी, ” माँ! आपसे मिलने की मुझे बहुत खुशी है। पर क्या करूं, मुझे माँ की गोदी की आदत नहीं है, हमेशा से पापा के हाथों का झूला ही झूला है। आप से मिलना था, मिल लिया, पर.. अब हम लोग चलते हैं।”
विनय के दिल पर रखा बोझ उतार गया था। माना कि आज बिटिया उसकी बाजुओं के झूले में नहीं झूल सकती थी, पर झूला झुलाने वाले हाथों को थामना उसे बेशक आ गया था।
अंजु गुप्ता