पिता जी चाहिए (व्यंग्य)
पुराणों मे लिखा है माता के चरणों में स्वर्ग होता है। और पिता जी के चरणों में जूता। जिसके पड़ते ही सारे नेटवर्क एक साथ मिलने लगते हैं। पिता जी एक पारिवारिक प्राणी है, जो सार्वलौकिक और सार्वभौमिक होता है। सार्वजनिक नहीं होता। यदि कोई अनहोनी नहीं हुई तो प्रायः हर परिवार में एक पिता जी होता है । हमारे देश मे पिता जी का जन्म उम्र की इक्कीस वर्ष की अवस्था में होता हे। इसके पहले पिता जी बनने का कोई दुस्साहस करता है तो उसको सम्मान नहीं मिलता। क्योंकि वह बाप तो होता है, पिता जी नहीं। जो व्यक्ति पिता जी नहीं बनता उसे लोग शंका की नज़रों से देखते हैं और वह नज़र उठाकर चल भी नहीं पाता। पिता जी नहीं बननेवाला किसी की पत्नी से तो क्या, अपनी पत्नी से भी नज़र मिलाकर बात नहीं कर पाता। पिता जी बनना हमारे समाज में एक धार्मिक अनुष्ठान माना जाता है। जब तक वह लड़के का पिता जी नहीं बनता, उसे मुक्ति नहीं मिलती। मरने के बाद उसकी आत्मा मोहल्ले के पीपल और बरगद के पेड़ पर लटकती रहती है तथा आने-जाने वाली कोमलांगियों को छेड़ते रहती है। इस बदनामी से बचने के लिए किसी ज़माने में पिता जी अनेक कन्याओं का उत्पादन करने के बाद के बाद भी थकते नहीं थे। एक पुत्र-प्रसूता के लिए अनेक माताओं का वरण करते थे। फिर यह बात और है कि अनेक मोमबत्तियों के सुलगने के बाद वह एक मात्र कुल का चिराग घर को आग लगा दे।
पिता जी को अनेक नामों से पुकारा जाता है। जैसेः- बाबूजी, बापू, बप्पा, बाबा, तात, दद्दा वगैहर-वगैहर। आधुनिकीकरण में इन पर्यायों को अनपढ़-गँवारों के शब्दकोष में डाल दिया है। ये ‘असंसदीय’ माने जाते हैं। कान्वेंट जानेवाले बच्चे और सभ्य समाज के पिता जी इसे पसंद नहीं करते। वे पापा जी कहना और कहलाना ही पसंद करते हैं। अनेक बच्चे शैशव में उच्चारण दोष के कारण पापा जी को ‘पाजी’ कहते हैं। फिर वयस्क होनेपर वह पिता जी को आजीवन ‘पाजी’ यानि ‘मूर्ख बनाते रहते हैं। अंग्रेजी में पिता जी को फादर कहते हैं। कुछ फादर बड़े खतरनाक होते हैं। गाँव-देहातों और आदिवासी बस्तियों में जाकर पूरे मोहल्ले के फादर बन जाते हैं। ये फादर बच्चे पैदा नहीं करते। सबको परमपिता की संतान बना देते हैं।
पिता जी सार्वजनिक नहीं होता। सार्वजनिक होने पर वह ‘राष्ट्रपिता’ हो जाता है। राष्ट्रपिता की कोई नहीं सुनता। उसकी फोटो और मूर्ति स्वार्थ सिद्धि के काम आती है। राष्ट्रपिता की औलाद ही उसकी नहीं सुनती थी। एक शराबी बन गयी थी और एक ने धर्म बदल डाला था। राष्ट्रपिता के जन्म दिन को घोर हिंसावादी देश अहिंसा-दिवस के रूप में मनाते हैं। राष्ट्रपिता के चार बंदर थे। तीन – बुरा न देखने, बुरा न सुनने, बुरा न बोलने वाले। चौथा बंदर उनके संसार छोड़ने के बाद व्यापक हो गया जो कहता था भले ही ‘बुरा बोलो-देखो-सुनो मत’ पर ‘बुरा करो’। ये चौथा वाला सबसे असरदार निकला। छुपा रुस्तम! इसकी आत्मा सर्वव्यापक हो गयी। राष्ट्रपिता की मानस संतानों में समा गयी। आजादी के बाद राष्ट्रपिता के मानस की संतानों ने जम से घोटाले, भ्रष्टाचार, हिंसा और असत्य की गगनचुंबी मीनारें खड़ी कीं। मैंने कहा न बाप होना अशिष्ट होता है। इसलिए राष्ट्रपिता ने अपने लंदन के विद्यार्थी जीवन में यह भेद छिपाकर रखा था। यह भेद उन्होंने राष्ट्रपिता बनने के बाद ‘सत्य के प्रयोग’ में उघाड़ा।
रहीम चाचा ने एक दोहे में लिखा था-
एकहि साधे सब सधे, सब साधे सब जाय।
रहिमन मूल ही सींचिबो फूले फले अघाय।।
मेरी समझ में आज आया वे इस पिता जी रूपी मूल (जड़) की ओर ही इशारा कर रहे थे। पर अब इस मूल को सींचने नहीं काटने की ज़रूरत है क्योंकि यह पारिवारिक प्राणी अब पशु बनता जा रहा है। ऐसा पिता जी, उसके बच्चों की माँ के लिए तो पता नहीं, पर भारतमाता के लिए अभिशाप बन रहा है। ये पशु-पिता जी एक-दो नहीं दर्जन के हिसाब से बच्चे पैदा करते है। इनके इन वरदानों के कारण अन्य पिताजियों की नींद हराम हो जाती है। ऐसे पिता जी पारिवारिक नहीं राष्ट्रीय समस्याओं जैसे मँहगाई, कुपोषण, अराजकता, कट्टरता, हिंसा के जनक भी बन जाते हैं। आज देश को न राष्ट्रपिता की आवश्यकता है और न पशु-पिता की ज़रूरत। देश को पिता जी चाहिए।
— शरद सुनेरी