संतानों की उम्मीद
माँ कोख़ में रखती है संतानें
करवटें नहीं लेती ,
नौ माह बोझ सहती है
पिता देखता है एक एक पल
संतान की खुशी
के लालच में ,
अपने कीमती
वक्त भी बेच देता है
उसकी परवरिश के लिये
लौटा दो
दोनों का वक्त और सामान
जो तुम्हारे लिये
ख़रीद रखा था
एक खुशी में कर्ज लेकर
संतानें तुम भी वही
देखोगे
जो माता पिता ने देखा
तुम्हारे लिए
एक दिन ज़रुर होगा
उमर के पड़ाव
पार करते ही अहसास
जिंदगी के पलों का
सब गुजरते है
उसी पगडंडी से
— शिखा सिंह