ग़ज़ल
अपने हालात से बेखबर आदमी,
ना चैन पाए कहीं बेसबर आदमी,
=======================
और पैसे कमाने की लालच लिए,
गांव से आ गया है शहर आदमी,
=======================
जीने की चाह में मरता है रोज़ ही,
रोज़ पीता है थोड़ा ज़हर आदमी,
=======================
आज जिसकी किसीको जरूरत नहीं,
बासी अखबार की इक खबर आदमी,
=======================
ख्वाब जितने भी थे ना मुकम्मल हुए,
हसरतों का अधूरा सफर आदमी,
=======================
कितने अरमान सीने में करके दफन,
बन गया खुद ही अपनी कबर आदमी,
=======================
मैंने देखा है मगरिब से मशरिक तलक,
मुझको आया कहीं ना नज़र आदमी,
=======================
आभार सहित :- भरत मल्होत्रा।