गज़ल
पल-पल अपने ज़मीर की निगरानी में रहता हूँ
सच्चा हूँ तभी शायद परेशानी में रहता हूँ
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इस गर्दाब से बाहर निकलने की नहीं कोई राह
मैं उसकी आँख में अटके हुए पानी में रहता हूँ
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आलीशान महलों में भी उनको मुश्किलें हैं और
टूटी झोंपड़ी में भी मैं आसानी में रहता हूँ
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बिना जिसकी रज़ा के एक पत्ता भी नहीं हिलता
बस दिन-रात उस रब की निगहबानी में रहता हूँ
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मुझे नफरत की गलियों का पता मालूम कैसे हो
मैं हरदम इश्क के जज़्बा-ए-लासानी में रहता हूँ
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आभार सहित :- भरत मल्होत्रा।