ग़ज़ल
धीरे धीरे से मुस्कुराते हैं।
हौले हौले करीब आते हैं।
वेदना दे नयी नयी हर दिन,
सब्र को खूब आज़माते हैं।
रोज़ देते हैं आश्वासन पर,
पास अपने नहीं बुलाते हैं।
यादआते है रोज़बढ़चढ़कर,
ज़ह्र से जब उन्हें भुलातें हैं।
तंगकरके तरहतरह से मुझे,
जोरसे खूबखिलखिलाते हैं।
पूँछते हाल हैं मेरा हरदम,
हाल अपना नहीं बताते हैं।
रोज़देकरनयीचमकखुदको,
चाँद तारे सा जगमगाते हैं।
— हमीद कानपुरी