ओल्ड इज गोल्ड
सुबह के व़क़्त रोज़ की तरह रवीना ब्रेकफ़ास्ट बनाने में व्यस्त थी, राजन तैयार हो गए थे और ड्रॉइंगरूम में किसी से मोबाइल पर बात कर रहे थे। हर काम का उनका निश्चित समय होता था, पल भर की भी देरी उन्हें बर्दाश्त नहीं है. पेपर पढ़ते-पढ़ते वे नाश्ता करते हैं और बिना कुछ कहे कार की चाबी उठा ऑफ़िस के लिए निकल जाते हैं। आज उसी वक़्त बोले, “सुनो, रवीना, मेरे आफिस के कुछ कलीग और बॉस घर आने वाले हैं, कुछ बढ़िया मॉडर्न डिशेस बना लेना। अक्षय बेटे से मैंने घर भी ठीक करने कहा है।”
ज्यादा कुछ मॉडर्न डिशेस रवीना को बनाने की प्रैक्टिस नही थी, जानती सब थी। जिसमे वो पारंगत थी, वो सब बना लिया, जैसे दही बड़े, उरद डाल की कचौरी, सांभर बड़े, बस अटक गई पिज़ा बनाने में, फिर ध्यान आया, चलो अक्षय से कहती हूँ, जोमाटो से आर्डर कर दे।
बोलने गयी तो नजर पड़ी, वो अलमारी से उंसकी पसंदीदा किताबे, जो उसने बरसो से जमा कर रखी थी, उसमे कई नेताओ की जीवनी, महान उपन्यासकारों की किताबें सब कबाड़ को देने के लिए निकाली थी।
वो जोर से बोल पड़ी, “ये क्या कर रहे हो ?”
अक्षय बोला, “क्या मम्मी, ये हिंदी में लिखी पुरानी किताबे आजकल कौन पढ़ता है, आपके पास भी कहाँ समय है, बेकार में अलमारी भरी है, ये सब आउटडेटेड हो चुके हैं, इसकी जगह लेटेस्ट अंग्रेजी के नोवेल्स सजाना है, उससे पापा की इज्जत बढ़ेगी।”
“रखो इन्हें अंदर, ये सब क्लासिक्स हैं. इतने बरसों में तो ये उपन्यास और कहानी संग्रह इकट्ठे किए हैं मैंने। नेहरू, गांधी, विवेकानंद की ऑटोबायोग्राफ़ी या गीता, उपनिषद् जैसे ग्रंथ कभी आउटडेटेड नहीं होंगे।” उसे लग रहा था कि जैसे चुनौतियों के पहाड़ उसे घेरे खड़े हैं। सामने एक प्रतिद्वंद्वी की तरह उसका बीस वर्षीय बेटा खड़ा है, जो नई पीढ़ी के होने का दंभ लिए उसके मूल्यों व सरोकारों को परास्त करने पर आमादा है।
“ओह! कम ऑन ममा, ग्रो अप। बेशक आप अपने टाइम के हिसाब से बहुत एजुकेटेड और स्मार्ट हैं, पर फिर भी आज के समय के अनुसार तो आउटडेटेड हो ही गई हैं। पापा को देखो, वे जानते हैं समय के साथ चलना।”
बोलकर वो वह धम्म् से पलंग पर आकर बैठ गई. पुराने हो गए पलंग से किर्र की आवाज़ आई। यह भी उसकी तरह आउटडेटेड हो गया है। उसकी शादी का पलंग है. पापा ने बहुत चाव से शीशम की लकड़ी का बनवाया।
अचानक जोर से अक्षय को बोल पड़ी, “जो किताब जहां रखी थी, वहीं रख दो, बाद में बात करती हूं।”
उसके शब्दों की रिक्तता और आंखों में आई नमी ही थी, जो अक्षय को चुप करा गयी।
शाम को मेहमानों की खातिर ऊपरी तौर से तो मुखड़ा सजा लिया, पर मन उद्विग्न था। बनावटी मुस्कान लिए पूरा नाश्ते के टेबल खचाखच विभिन्न व्यंजनों से भरा था।
तभी बॉस मिस्टर जोन्स बोले, “वाओ, राजन, योर वाइफ इज वेरी टैलेंटेड वुमन, इतने तरह के डिशेस, जल्दी लाओ यार, भूख लग गयी।”
“सबलोग एक के बाद एक व्यंजनों का स्वाद ले रहे थे, और बाहर से मंगाया पिज़्ज़ा मुँह ताक रहा था, दही बड़े, फरे और कचौड़ी मुस्करा रहे थे, क्योंकि आज उनकी वैल्यू बढ़ गयी थी।”
“राजन, बाहर पिज़्ज़ा खाकर मन भर गया था, आज भाभीजी ने कई दिनों बाद भारतीय डिशेस के दर्शन कराए, धन्यवाद, भाभीजी।”
खाने के बाद सबकी नजर किताबो पर पड़ी, और एक साहब बोल पड़े, वाह क्या कलेक्शन है, मैं यही बहुत दिन से ढूंढ रहा था। और वो डॉ धर्मदेव भारती की किताब खोले बैठ गये।
“सुनो, राजन, प्लीज ये किताब मैं दो दिन के लिए ले जाऊं क्या, कई दिन बाद दिखी, मुझे पढ़ना है।”
“भाभीजी का खाने का और पढ़ने का दोनो शौक यूनिक है।”
अंग्रेज़ी के उपन्यास छुप कर देख रहे थे, कोई हमारी भी तारीफ करे।
— भगवती सक्सेना गौड़