गज़ल
कब दीवारों से झाँकता है कोई,
मुझको शायद मुगालता है कोई
मुड़ के देखा हवा का झोंका था,
लगा ऐसे पुकारता है कोई
रूबरू होती है मुलाकातें,
अब कहाँ चिट्ठी बांचता है कोई
इस तरह आजकल तू मिलता है,
जैसे एहसान उतारता है कोई
तुम्हें मालूम क्या कि तेरे बिन,
कैसे जीवन गुज़ारता है कोई
तूने मुँह फेरा तो सुकून हुआ,
शहर में हमको जानता है कोई
— भरत मल्होत्रा