धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

पूर्वोत्तर भारत का सांस्कृतिक वैभव

पूर्वोत्तर भारत अनेक धर्मों, जातियों, सभ्यताओं और संस्कृतियों का संगम स्थल है I पूर्वोत्तर की कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं जो शेष भारत से इसे अलग करती हैं I समन्वयकारी भावना इस क्षेत्र की अद्भुत विशेषता है I इस क्षेत्र में भारत और विश्व के विभिन्न क्षेत्रों से अलग-अलग मत और संस्कृति के लोग आए और इस समन्वयकारी संस्कृति में घुलमिलकर एकरूप हो गए I इस पुण्य भूमि में अनेक संस्कृति, सभ्यता, विचारधारा और परम्पराएं घुलमिलकर दूध में पानी की तरह एकाकार हो गईं I विभिन्न कालखंडों में यहाँ आर्य, द्रविड़, तिब्बती, बर्मन आदि आए और यहाँ के लोकजीवन के अंग बन गए I इसलिए यदि भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र को देश की सांस्कृतिक प्रयोगशाला कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी I इस क्षेत्र में लगभग 400 समुदायों के लोग रहते हैं और वे 220 से अधिक भाषाएँ बोलते हैं। पूर्वोत्तर की अधिकांश भाषाओं के पास अपनी कोई लिपि नहीं है, लेकिन लोककंठों में विद्यमान लोकसाहित्य अत्यंत समृद्ध और बहुआयामी है I संस्कृति, भाषा, परंपरा, रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज, पर्व-त्योहार, वेश-भूषा आदि की दृष्टि से यह क्षेत्र अत्यंत वैविध्यपूर्ण, रंगीन, उत्सवधर्मी और जटिल है । सैकड़ों आदिवासी समूहों और उनकी अनेक उपजातियाँ, असंख्य भाषाएँ, भिन्न-भिन्न प्रकार के रहन-सहन, खान-पान और परिधान, अपने-अपने ईश्वरीय प्रतीक, धर्म और अध्यात्म की अलग-अलग संकल्पनाओं के कारण इस क्षेत्र का सांस्कृतिक महत्व है, लेकिन दुर्भाग्यवश अभी तक हिंदी जगत ने इस महत्व को रेखांकित नहीं किया है I पूर्वोत्तर की बहुत बड़ी आबादी प्रकृतिपूजक अथवा जड़ात्मवादी है I प्रकृतिपूजा अथवा जड़ात्मवाद इस क्षेत्र का मौलिक धर्म है I विशेषकर आदिवासी समुदाय सूर्य, चन्द्रमा, नदी, पर्वत, पृथ्वी, झील, जलप्रपात, तारे, वन इत्यादि की पारंपरिक विधि से पूजा करते हैं। जिन आदिवासी समुदायों ने ईसाई धर्म ग्रहण कर लिया है वे भी प्रकृति की पूजा करते हैं। ईसाई धर्म अपनाने के बावजूद इन लोगों ने अपने मूल रीति– रिवाजों का परित्याग नहीं किया है। वे चर्च में भी जाते हैं और अपने पारंपरिक विधि–निषेधों का भी पालन करते हैं। बंगलादेशी घुसपैठ पूर्वोत्तर भारत की बहुत बड़ी समस्या है जिसके कारण कुछ राज्यों की जनसांख्यिकी असंतुलित हो गई है और कुछ जिलों में बंगलादेशी मुसलमानों की जनसंख्या मूल निवासियों से अधिक हो चुकी है I पूर्वोत्तर में हिंदू धर्म की तीनों शाखाओं शैव, वैष्णव और शाक्त के उपासक हैं I वैष्णव धर्म के निम्बार्क सम्प्रदाय (निमान्दी), रामानंद सम्प्रदाय और चैतन्य सम्प्रदाय (गौडिया) तीनों के उपासक भी इस क्षेत्र में विद्यमान हैं I पूर्वोत्तर में बौद्ध धर्म की जड़ें भी गहरी हैं I यहाँ बौद्ध धर्म के हीनयान, महायान और वज्रयान तीनों के अनुयायी हैं I अनेक उच्छृंखल नदियों, जल प्रपातों, तालाबों से अभिसिंचित पूर्वोत्तर की शस्य श्यामला धरती पर अनेक महापुरुषों ने जन्म लिया जिनमें श्रीमंत शंकरदेव का अग्रणी स्थान है I पूर्वोत्तर के युगांतरकारी महापुरुष श्रीमंत शंकरदेव की पुण्यभूमि के रूप में ख्यात माजुली द्वीप विश्व का सबसे बड़ा नदी द्वीप है I इस द्वीप पर श्रीमंत शंकरदेव का स्पष्ट प्रभाव महसूस किया जा सकता है I समृद्ध विरासत, पर्यावरण अनुकूल पर्यटन और आध्यात्मिकता के कारण माजुली देशी–विदेशी पर्यटकों के लिए आकर्षण का प्रमुख केंद्र बन गया है I कार्तिक पूर्णिमा के समय आयोजित होनेवाली रासलीला के अवसर पर यहाँ असमिया संस्कृति जीवंत हो उठती है I इस अवसर पर पारंपरिक नृत्य, गीत और नाटिका की प्रस्तुति पर्यटकों का मन मोह लेती है I वर्तमान में यहाँ लगभग 22 वैष्णव सत्र हैं जिनमे औनीअति सत्र, दक्षिणपथ सत्र, गरमुर सत्र, सामागुरी सत्र और कालीबारी सत्र महत्वपूर्ण हैं I पंद्रहवीं शताब्दी में इसी द्वीप पर वैष्णव संत श्रीमंत शंकरदेव एवं उनके शिष्य माधवदेव का पहली बार मिलन हुआ था I त्रिपुरा के पास उन्नत सांस्कृनतिक विरासत, समृद्ध परंपरा, लोक उत्सIव और लोकरंगों का अद्धितीय भंडार है। उत्तरी त्रिपुरा में अवस्थित ऊनाकोटि पर्वतमाला देशी-विदेशी पर्यटकों के लिए आकर्षण का एक प्रमुख केंद्र है I यहाँ शिला पर उकेरे गए विभिन्न देवी– देवताओं के चित्र एवं भगवान शिव, गणेश, माँ दुर्गा, नंदी बैल की पत्थर की मूर्तियाँ देखने लायक हैं I यहाँ पर शिव और विशालकाय गणेश की मूर्ति विशेष रूप से उल्लेखनीय है I शिव के सिर को उन्नकोटिश्वर काल भैरव कहा जाता है I पुरातत्ववेत्ताओं का मानना है कि ये मूर्तियाँ 11-12 वीं शताब्दी की बनी हैं I यहाँ पर वसंत ऋतु में अशोक अष्टमी मेला लगता है I इसी प्रकार त्रिपुरा के उदयपुर में स्थित त्रिपुरेश्वरी मंदिर देश की 51 शक्तिपीठों में से एक है। इसे कूर्म पीठ कहा जाता है क्योंकि मंदिर का आकार कछुए के समान है । इस मंदिर का निर्माण 1501 में महाराजा धन्यमाणिक्य ने करवाया था I मोकोकचुंग नागालैंड की सांस्कृतिक और बौद्धिक राजधानी है I यहाँ का प्राकृतिक सौन्दर्य और पारंपरिक नृत्य पर्यटकों का मन मोह लेते हैं I धीरे धीरे मोकोकचुंग नागालैंड के एक प्रमुख पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित होता जा रहा है I मोकोकचुंग को नागालैंड का सबसे सुंदर और जीवंत जिला माना जाता है I यह अपने आतिथ्य, समृद्ध परंपराओं और त्योहारों के लिए विख्यात है I दिमापुर नागालैंड का प्रवेशद्वार है I इसे नागालैंड की व्यावसायिक राजधानी भी कहा जा सकता है I इस शहर में आधुनिकता और परम्परा का संगम देखने को मिलता है I इतिहास में रुचि रखनेवाले पर्यटक यहाँ पर 10 वीं शताब्दी के कछारी वंश के ध्वंसावशेष का अवलोकन कर सकते हैं I नागालैंड के विभिन्न आदिवासी समूहों जैसे, अंगामी, लोथा, चाकेसांग, सुमी, संगतम, आओ, जेलियांग आदि की संस्कृति की झलक दिफुपहार में देखने को मिलती है I मेघालय का समाज मातृसत्तात्मक है I सबसे छोटी पुत्री समस्त संपत्ति की मालकिन होती है I छोटी पुत्री ही वृद्ध माता-पिता एवं अविवाहित भाई-बहनों की देखभाल करती है I परिवार में कोई पुत्री नहीं होने पर माता-पिता किसी निकटतम महिला संबंधी को अपनी संपत्ति का उत्तराधिकारी बना देते हैं I खासी और जयंतिया समुदाय के लोग अपने पारंपरिक मातृवंशीय नियमों का पालन करते हैं I गारो जनजाति में भी सबसे छोटी बेटी मूल रूप से पारिवारिक संपत्ति की वारिस होती है I खासी और गारो दोनों जनजातियों में पिता को बाहरी व्यक्ति माना जाता है I बच्चे अपनी माता के नाम से जाने जाते हैं I परिवार की सम्पूर्ण सत्ता माँ के हाथों में होती है I इस समाज में पिता की कोई निर्णायक भूमिका नहीं होती है I सभी संपत्ति पर माँ का अधिकार होता है I माँ की मृत्यु के बाद माता की संपत्ति पर उसकी सबसे छोटी बेटी का अधिकार होता है I यदि किसी महिला को कोई संतान नहीं हो तो उस मचोंग (गोत्र) की किसी अन्य महिला को उसकी संपत्ति मिल जाती है I मिजोरम के अधिकांश लोगों ने ईसाई धर्म को अंगीकार कर लिया है I वर्ष 1894 में आइजोल में दो ईसाई मिशनरी का आगमन हुआ I उस समय तक सभी मिज़ो प्रकृतिपूजक अथवा जड़ात्मवादी थे I वे हितकारी देवी-देवताओं के अस्तित्व में विश्वास करते थे जिसे “पथियन” कहते कहा जाता है I “पथियन” को सृष्टिकर्ता माना जाता है I इनका विश्वास था कि पहाड़ों, पेड़ों, चट्टानों और नदियों में अनिष्टकारी आत्माओं और राक्षसों का निवास होता है I इसलिए उन्हें पशु-पक्षियों की बलि देकर प्रसन्न करने का प्रयास किया जाता था I सभी धार्मिक कार्य पुजारी द्वारा संपन्न कराए जाते थे, लेकिन अब मिजोरम के अधिकांश निवासियों ने ईसाई धर्म को अंगीकार कर लिया है और वे गिरजाघरों द्वारा निर्देशित और नियंत्रित होते हैं I ईसाई धर्म के अतिरिक्त मिजोरम में लगभग 8.19 प्रतिशत लोग बौद्ध धर्म में आस्था रखते हैं I चकमा और मघ दोनों समुदाय बौद्ध धर्मावलंबी हैं I अरुणाचल प्रदेश में आदी, न्यिशी, आपातानी, तागिन, सुलुंग, मोम्पा, खाम्ती, शेरदुक्पेन, सिंहफ़ो, मेम्बा, खम्बा, नोक्ते, वांचो, तांगसा, मिश्मी, बुगुन (खोवा), आका, मिजी इत्यादि आदिवासी समूह सद्भाव एवं भाईचारे के साथ रहते हैं I अरुणाचल की सभी जनजातियों की अलग-अलग भाषाएँ हैं I अरुणाचलवासी संपर्क भाषा के रूप में हिंदी का प्रयोग करते है I लोकसाहित्य की दृष्टि से यह प्रदेश बहुत समृद्ध है I लोक साहित्यय में भी अरुणाचली समाज लोकगीतों से अधिक अनुराग रखता है । इस प्रदेश का अधिकांश लोकसाहित्यस गीतात्म क है । मौखिक परंपरा में उपलब्धे इन गीतों में प्रदेशवासियों की आशा-आकांक्षा, विजय-पराजय, हर्ष-वेदना तथा विधि-निषेध सब कुछ समाहित है । सदियों के अनुभव लोकगीतों की कुछ पंक्तियों में सिमटे होते हैं । उनके निर्दोष और सरल हृदय की मसृण भावनाएं इन गीतों के रूप में प्रकट होती हैं । अरूणाचली लोकगीतों में अरूणाचली समाज, संस्कृकति और परंपरा का मणिकांचन संयोग है । इन गीतों में प्राकृतिक जीवन का राग-रंग, भावनाओं का उत्ककर्ष और अलौकिक शक्तियों के प्रति श्रद्धा निवेदित है । यह उनके अविकृत मन को शीतलता प्रदान करनेवाला ऐसा मधुरमय संगीत है जिससे आक्रांत-क्लांकत मन को शांति मिलती है। अरुणाचलवासियों के जीवन में धर्म को सर्वोच्च स्थाधन प्राप्तह है । यहां की अधिकांश जनजातियां दोन्यी –पोलो के प्रति अटूट आस्था रखती है । दोन्यी–पोलो अरुणाचल का सर्वमान्यज ईश्व रीय प्रतीक है जिसे अंतर्यामी, स्वसयं प्रकाशमान, सर्वशक्तिमान व सर्वहितकारी माना जाता है। अरुणाचली समाज अपने आध्यात्मिक प्रतीकों, उपासना पद्धतियों एवं धार्मिक विधि–निषेधों के प्रति पूर्णतः श्रद्धावनत है I मणिपुर की संस्कृति पर वैष्णव धर्म का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है I वैष्णव धर्म का मणिपुर के कला रूपों, साहित्य और जीवन पर गहरा प्रभाव है I मणिपुर अठारहवीं शताब्दी में वैष्णव धर्म के तीनों रूपों के आगमन का साक्षी बना I इस काल में ही मणिपुर में वैष्णव धर्म के निम्बार्क सम्प्रदाय (निमान्दी), रामानंद सम्प्रदाय और चैतन्य सम्प्रदाय (गौडिया) का प्रवेश हुआ I पड़ोसी जिले सिलहट से एक वैष्णव उपदेशक शांतिदास आए और उन्होंने महान मणिपुरी राजा गरीबनवाज को रामानंदी सम्रदाय में परिवर्तित कर दिया I आरंभिक विरोध के बाद वैष्णव धर्म मणिपुर का राज्य धर्म बन गया I राजर्षि भाग्यचंद्र (1763- 98 ई.) के शासनकाल में वैष्णव धर्म के चैतन्य सम्प्रदाय का खूब पल्लवन–पुष्पन हुआ I अठारहवीं शताब्दी और उसके बाद की प्रदर्शन कलाओं पर वैष्णव धर्म का उल्लेखनीय प्रभाव देखा जा सकता है I राजा गरीबनवाज के शासनकाल में मणिपुरी विद्वान अंगोम गोपी ने कृतिवास रामायण पर आधारित सात खंडों में मणिपुरी रामायण की रचना की I संस्कृति, भाषा, परंपरा, रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज, पर्व-त्योहार, वेश-भूषा आदि की दृष्टि से सिक्किम विविधवर्णी, रंगीन और जीवंत प्रदेश है I तिब्बात, नेपाल, भूटान की अंतर्राष्ट्रीसय सीमा पर अवस्थिसत सिक्कि म एक लघु पर्वतीय प्रदेश है । यह सम्राटों, वीर योद्धाओं और कथा-कहानियों की भूमि के रूप में विख्या त है । सिक्किम को रहस्यमयी सौंदर्य की भूमि व फूलों का प्रदेश जैसी उपमाएं दी जाती हैं। नदियां, झीलें, बौद्धमठ और स्तूप बाहें फैलाए पर्यटकों को आमंत्रित करते हैं। विश्व की तीसरी सबसे ऊंची पर्वत चोटी कंचनजंगा राज्य की सुंदरता में चार चांद लगाती है।

*वीरेन्द्र परमार

जन्म स्थान:- ग्राम+पोस्ट-जयमल डुमरी, जिला:- मुजफ्फरपुर(बिहार) -843107, जन्मतिथि:-10 मार्च 1962, शिक्षा:- एम.ए. (हिंदी),बी.एड.,नेट(यूजीसी),पीएच.डी., पूर्वोत्तर भारत के सामाजिक,सांस्कृतिक, भाषिक,साहित्यिक पक्षों,राजभाषा,राष्ट्रभाषा,लोकसाहित्य आदि विषयों पर गंभीर लेखन, प्रकाशित पुस्तकें : 1.अरुणाचल का लोकजीवन (2003)-समीक्षा प्रकाशन, मुजफ्फरपुर 2.अरुणाचल के आदिवासी और उनका लोकसाहित्य(2009)–राधा पब्लिकेशन, 4231/1, दरियागंज, नई दिल्ली–110002 3.हिंदी सेवी संस्था कोश (2009)–स्वयं लेखक द्वारा प्रकाशित 4.राजभाषा विमर्श (2009)–नमन प्रकाशन, 4231/1, दरियागंज, नई दिल्ली–110002 5.कथाकार आचार्य शिवपूजन सहाय (2010)-नमन प्रकाशन, 4231/1, दरियागंज, नई दिल्ली–110002 6.हिंदी : राजभाषा, जनभाषा, विश्वभाषा (सं.2013)-नमन प्रकाशन, 4231/1, दरियागंज, नई दिल्ली–110002 7.पूर्वोत्तर भारत : अतुल्य भारत (2018, दूसरा संस्करण 2021)–हिंदी बुक सेंटर, 4/5–बी, आसफ अली रोड, नई दिल्ली–110002 8.असम : लोकजीवन और संस्कृति (2021)-हिंदी बुक सेंटर, 4/5–बी, आसफ अली रोड, नई दिल्ली–110002 9.मेघालय : लोकजीवन और संस्कृति (2021)-हिंदी बुक सेंटर, 4/5–बी, आसफ अली रोड, नई दिल्ली–110002 10.त्रिपुरा : लोकजीवन और संस्कृति (2021)–मित्तल पब्लिकेशन, 4594/9, दरियागंज, नई दिल्ली–110002 11.नागालैंड : लोकजीवन और संस्कृति (2021)–मित्तल पब्लिकेशन, 4594/9, दरियागंज, नई दिल्ली–110002 12.पूर्वोत्तर भारत की नागा और कुकी–चीन जनजातियाँ (2021)-मित्तल पब्लिकेशन, 4594/9, दरियागंज, नई दिल्ली – 110002 13.उत्तर–पूर्वी भारत के आदिवासी (2020)-मित्तल पब्लिकेशन, 4594/9, दरियागंज, नई दिल्ली– 110002 14.पूर्वोत्तर भारत के पर्व–त्योहार (2020)-मित्तल पब्लिकेशन, 4594/9, दरियागंज, नई दिल्ली– 110002 15.पूर्वोत्तर भारत के सांस्कृतिक आयाम (2020)-मित्तल पब्लिकेशन, 4594/9, दरियागंज, नई दिल्ली–110002 16.यतो अधर्मः ततो जयः (व्यंग्य संग्रह-2020)–अधिकरण प्रकाशन, दिल्ली 17.मिजोरम : आदिवासी और लोक साहित्य(2021) अधिकरण प्रकाशन, दिल्ली 18.उत्तर-पूर्वी भारत का लोक साहित्य(2021)-मित्तल पब्लिकेशन, नई दिल्ली 19.अरुणाचल प्रदेश : लोकजीवन और संस्कृति(2021)-हंस प्रकाशन, नई दिल्ली मोबाइल-9868200085, ईमेल:- [email protected]