कविता

कविता- गूँगी शाम

पहले जीवन की शाम सुहानी हुआ करती थी
जो चहल पहल सुबह होने पर होती थी
मन में उमंग और उत्साह से भरी हुई होती थी
लौटकर जो आते गूँगी शामें सी हो जाती है
सब उलझे है आज कल अपने में है
हर रिश्तें नातें अब बेमतलब से हो गए है
घर आँगन अब बेजान से हो गए है
शाम अब गूँगी और बहरी सी हो गयी है
दिनभर भागदौड़ में मानव भागता जा रहा है
ऊँचे सपनों और इच्छाओं के साथ उड़ता जा रहा है
कामयाब होने की चाह प्रतिस्पर्धा में भागे जा रहे है
जिंदगी की सुनहरी शामें गूँगी होती जा रही है
रिश्तें निभाने का समय नहीं सब छूटते जा रहे है
 बच्चे पढ़लिख कर विदेश की ओर रुख कर रहे है
न उनके पास बात करने और आने का समय नहीं है
बुढ़ापे का थे जो सहारा छोड़ सब चले गए
जीवन की अंतिम अवस्था को बोझ न समझो
योग करो जीवन को निरोग रख
शरीर को स्वस्थ बनायें
हँसना ,मुस्कान लिए जीवन में सकारात्मक सोच रखें
वही सुहानी शामें फिर से लौटेंगी
नहीं होगी वो गूँगी शामें
— पूनम गुप्ता

पूनम गुप्ता

मेरी तीन कविताये बुक में प्रकाशित हो चुकी है भोपाल मध्यप्रदेश