चेतना का गीत
जीवन को गतिशील बनाकर, बाधाओं से लड़ना होगा।
मन को देकर नवल ताज़गी, अवसादों से भिड़ना होगा।।
निज सूरज को रोज़ उगाकर,
नया सवेरा लाना होगा।
साज़ नहीं,आवाज़ नहीं पर,
गीत नया ही गाना होगा।।
सकल दुखों को परे हटाकर, अब तो सुख को गढ़ना होगा !
डगर भरी हो काँटों से पर, आगे को नित बढ़ना होगा !!
पीर बढ़ रही,व्यथित हुआ मन,
दर्द नित्य मुस्काता
अपनाता जो सच्चाई को,
वह तो नित दुख पाता
किंचित भी ना शेष कलुषता, शुचिता से अब मढ़ना होगा !
डगर भरी हो काँटों से पर, आगे को नित बढ़ना होगा !!
झूठ,कपट,चालों का मौसम,
अंतर्मन अकुलाता
हुआ आज बेदर्द ज़माना,
अश्रु नयन में आता
जीवन बने सुवासित सबका, पुष्पों-सा अब झड़ना होगा !
डगर भरी हो काँटों से पर,आगे को नित बढ़ना होगा !!
कुछ तुम सुधरो, कुछ हम सुधरें,
नव आगत मुस्काए
सब विकार, दुर्गुण मिट जाएं,
अपनापन छा जाए
औरों की पीड़ा हरने को, करुणा लेेकर अड़ना होगा !
डगर भरी हो काँटों से पर, आगे को नित बढ़ना होगा !!
— प्रो. (डॉ) शरद नारायण खरे