कविता

नियति चक्र

मेरी खुशियों का पारा
सातवें आसमान पर था,
क्योंकि जो मुझे मिला था
वह मेरे लिए अभी भी स्वप्न जैसा
महसूस हो रहा है,
पर सच तो धरातल पर आ चुका था,
मुझे गर्व का पल नसीब हो चुका था,
उन्हीं गर्व के पलों में
मैं कुलांचे भर रहा था।
मगर ये क्या?
मुझ पर ये बज्रपात क्यों गिर गया
नहीं जानता हूँ मेरा कसूर क्या था?
पर शायद नियत को यही मंजूर था
उसकी नजर में यही मेरे हित में था।
नियत को हम टाल भी नहीं सकते
चुपचाप स्वीकार करना ही बुद्धिमानी है।
मैंनें भी नियति के चक्र के आगे
अपना सिर झुका लिया,
दोष मेरा है भी या नहीं
इस बात को नजरअंदाज कर दिया है।
बस!चुपचाप अपने रास्ते चल रहा हूँ
मेरी नियत पाक साफ है
इसलिए खुश हो रहा हूँ,
सर्वहित की भावना के साथ जी रहा हूँ,
आपकी नजर में अच्छा या बुरा हूँ
यह कभी नहीं सोचता हूँ,
जो भी हूँ जैसा भी हूँ
आपको सामने से दिख रहा हूँ
अपनी मस्ती में जी रहा हूँ,
नियति चक्र को स्वीकार कर
बस चलता ही जा रहा हूँ।

 

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921