तुम मधुमास हो
प्रेम की संहिता का तुम उल्लास हो,
दृष्टि की अल्पना का तुम विन्यास हो।
तुम मलय की सुगंधित पवन हो सदा,
मैं हूँ पतझड़ हमेशा तुम मधुमास हो।
रम्य पद्यों का मेरे तुम भावार्थ हो,
व्याकरण शास्त्र का प्रातिपदिकार्थ हो।
शब्द की वृत्तियों में तुम हो व्यंजना,
गद्य की रीति रचना का निहितार्थ हो।
इस जनम की अधूरी कहानी हो तुम,
नेह के उपनिषद् की निशानी हो तुम।
सूक्ति छन्दों में तुमको मैं ढूँढा करूँ,
मीरा जैसी अनोखी दीवानी हो तुम।
शब्द की सुष्ठुता भी तुम्हीं हो मेरी,
अर्थ गाम्भीर्य का बोध तुम हो मेरी।
कल्पना के क्षितिज पर मैं लिखता रहूँ,
गीत -गजलें समर्पित तुम्हें हो मेरी।
— डॉ. ज्ञानेन्द्र कुमार मिश्र ‘गुन्जन’