बोधकथा

बात धर्म की

एक बार की बात है महाभारत युद्ध के बाद अर्जुन रमण करने निकले बीच में आई एक नदी से उन्होंने अहंकार वश मार्ग मांगा। मार्ग न देने पर नदी को सुखा देने की चेतावनी दी। अर्जुन के बाण के ताप से नदी देवी रूप में प्रकट हुई, अर्जुन ने पुनः निकलने के लिए मार्ग देने को कहा, अन्यथा पूरी नदी को सुखाने की चेतावनी दी। तब देवी रूपी नदी ने प्रकट होकर कहा कि बहना तो मेरा धर्म है, मैं अपना मार्ग नही बदल सकती, और मुझे निर्जल करके तुम मुझमे निवास करने वाले लाखों जीव जंतुओं को अकारण क्यों मरना चाहते हो। तुम त्रिलोक के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर हो, अपने बाणों से एक पुल का निर्माण करो, जिससे तुम मुझे पार कर सको। तो मेरी मर्यादा भी बनी रहेगी और आपको भी यश मिलेगा। अर्जुन नदी के इस विचार पर सहर्ष तैयार हो गए और अपने बाणों से एक श्रेष्ठ पुल बनाकर उस नदी को पार किया । हनुमान जी दूर बैठे अर्जुन के इस अहंकार को देख रहे थे, उन्होंने मन ही मन प्रभु से कहा कि हे प्रभु अर्जुन का अहंकार अब चरम पर पहुंच चुका है अब कृपया मुझे आज्ञा दें कि अर्जुन को उसकी शक्ति के दुरुपयोग के लिए दण्ड मिले व अपने अहंकार को जानकर उसे समाप्त कर सके। अर्जुन को अपनी शक्तियों का घमंड हो गया है, वह स्वयं को विश्व का सबसे शक्तिशाली मानव समझने लगा है। प्रभु ने एक लीला रचाई, भक्त हनुमान अर्जुन को मार्ग में बैठे मिले। उस समय अर्जुन प्रभु श्री राम के बनाये गए विशाल पाषाण पुल के निकट खड़े थे। हनुमान श्री राम नाम जाप करते हुए मस्ती से पुल पर बैठे थे, अर्जुन ने पत्थरों से बने पुल को देखकर हनुमान से पूछा कि यह विचित्र पुल कैसा है, हनुमान जी प्रभु श्री राम का गुणगान करने लगे उन्होंने बताया कि आप से पहले प्रभु श्री राम ने 100 योजन समुद्र पर पुल बांधकर लंका पर चढ़ाई की और रावण जैसे आतताई राक्षस को समाप्त किया। यह सुनकर अर्जुन हंसने लगे क्योंकि वह अभी अभी बाणों से बने पुल को पार करके आ रहे थे अर्जुन को हंसते देख हनुमान जी ने पूछा कि आपकी हंसी का कारण जान सकता हूं, तो अर्जुन ने कहा कि प्रभु श्रीराम उस समय के महानतम धनुर्धर थे, फिर भी उन्होंने पत्थरों के पुल का निर्माण किया। वे चाहते तो अपने बाणों से एक पुल का निर्माण कर देते और सारी सेना को लंका पहुंचा देते बस इसी बात पर मुझे हंसी आ रही है। इस बात पर हनुमान जी मुस्कुरा दिए तब अर्जुन ने कहा कि आप मेरी बात को हास्य में ले रहे हैं। मैं चाहूं तो अभी यहीं इस समुद्र पर एक ऐसा पुल बना सकता हूं जो लाखों वानरों का भार उठाने में सक्षम हो। हनुमान जी ने कहा चलिए ठीक है आपकी बात का प्रमाण देख लेते हैं। अर्जुन ने बाण निकालकर संधान किया और समुद्र पर बहुत विराट और श्रेष्ठ पुल का निर्माण किया, फिर हनुमान जी से कहा जाओ देखो इसको इतना श्रेष्ठ पुल विश्व में कभी किसी धनुर्धर ने सोचा भी नहीं होगा। हनुमान जी ने अर्जुन से फिर पूछा कि क्या मैं इस पुल पर चढ़ सकता हूं। अर्जुन ने कहा क्यों नहीं तुम्हारे जैसे ही लाखों वानर मनुष्य इस पुल पर चल सकते हैं। हनुमान जी ने कहा कि यदि यह पुल धराशाई हो गया तो अर्जुन ने कहा कि यदि यह पुल धराशाई हो गया तो मैं स्वयं को त्रिलोक का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर कहना बंद कर दूंगा और यदि यह पुल सुरक्षित रहा तो हनुमान जी ने कहा कि ऐसी स्थिति में मैं अपने आपको आपका दास स्वीकार कर लूंगा। इतना कहकर हनुमान जी ने जैसे ही अपना पहला कदम पुल पर रखा पूरा पुल धराशाई होकर पाताल में चला गया। यह देखकर अर्जुन अवाक रह गए उन्हें समझ में नहीं आया यह कैसा चमत्कार हुआ ? उनके इतने श्रेष्ठ और मजबूत निर्माण को पाताल में पहुंचाने वाले यह कोई साधारण व्यक्ति नहीं यह जानकर अर्जुन ने हनुमान जी के चरण पकड़ लिए पश्चात हनुमान जी ने कहा कि मात्र मेरे भार से आपका बनाया श्रेष्ठ पुल धराशाई हो गया जबकि प्रभु श्री राम के नाम से बनाए गए पत्थरों के पुल पर समस्त वानर सेना के साथ राम जी लंका पहुंचे और हजारों वर्षों बाद भी यह पुल आज संरक्षित है। अर्जुन ने हाथ जोड़कर अपनी भूल स्वीकार की और अपने मन के अहंकार के लिए हनुमान जी से क्षमा मांगी। इस प्रसंग से हमें यह शिक्षा मिलती है कि धन बल शक्ति आदि अर्जित करने के बाद हमें अहंकारी नही बनना चाहिए, कृतज्ञ बनकर प्रभु का आशीर्वाद मानकर मानवता की भलाई के लिए कार्य करना चाहिए।

— मंगलेश सोनी

*मंगलेश सोनी

युवा लेखक व स्वतंत्र टिप्पणीकार मनावर जिला धार, मध्यप्रदेश