पत्थरों के देश में
अजनबी पत्थरों के देश में,
देखा इन्सान पत्थरों के बने I
बहुत सहलाया, प्यार भी किया,
चूमा, पलकों पर बिठाया I
सोचा – बोल उठेंगे ये पत्थर,
पाकर आत्मीयता का एहसास I
जोर-जोर से उन्हें झकझोरा,
उठाकर देखा, लहूलुहान था हाथ हमारा I
शब्द चुक गए थे ऐसे,
तप्त भूमि में बूंदें हो जैसे I
ए खुदा ! अगर बनाया पत्थरों का देश,
तो क्यों बनाया मुझे इन्सान ?
अगर बना दिया मुझे इन्सान,
तो पत्थरदिल क्यों न बनाया ?
कम से कम इस दिल में
इंसानियत की चाहत तो न होती ?
इंसाफ माँगते इन हाथों को
हाथ जोड़ने की मजबूरी तो न होती ?
पलकों में झिलमिलाते आँसुओं को
चू जाने की आदत तो न होती ?
तू भी कभी सोच – ए खुदा !
अगर इन्सान न बनाता तो
कैसी बसती तेरी ये दुनिया ?
पत्थर तो बोला नहीं करते,
न ही दुआ माँगते तुझसे I
ये इन्सान ही हैं, जो तेरी
सजदा करते हैं बार-बार I
इंसानियत की खातिर तेरी,
दुहाई देते हैं बार-बार I
पर अब बहुत हो चुका,
तू खुदा है तो हम भी हैं इन्सान I
या तोड़ दे पत्थरों का देश,
या मत बना इंसानी-दिल I
ऐसे तो मिट जाएगी तेरी दुनिया,
भरम भी मिट जाएगा तेरा I
कौन कहेगा तुझे खुदा ?
देखा है कभी इन्सान बनकर ?
कितना आसान है जीना खुदा बनकर I
आ तू यहाँ केवल एक दिन
कभी इन्सान बनकर भी देख I
भूल जाएगा ए खुदा ! अपनी
खुदाई और इंसानियत भी I
— डॉ अनीता पंडा