ग़ज़ल
कर रहा है वो हिमाक़त पर हिमाक़त।
और फिर भी चाहता है बादशाहत।
शाहजादे की तरह पाला गया जो,
आज उस पर भेजते हैं लोग लानत।
हैं ख़ुदा हम पार्टी के, देश के भी,
शेखचिल्ली की अदाएँ हैं सलामत।
नींव से पत्थर निकलते जा रहे हैं,
है भरम, मजबूत है अब भी इमारत।
वो अकेला ही खड़ा होगा किसी दिन,
सामने दीवार पर लिख दो इबारत।
— बृज राज किशोर “राहगीर”