ग़ज़ल
खबरों के साँचे में खबरें कैसे ढलती हैं।
डाल मसाला अफ़वाहों का स्वाद बदलती हैं।
मायाजाल अजब ही है इन खबरों का यारों,
आज सही लगती हैं जो, कल झूठ निकलती हैं।
यूँ तो खबरों की कुछ ज़्यादा उम्र नहीं होती,
पर कुछ खबरें उम्मीदों से बढ़कर चलती हैं।
इंसानी खबरों का कोई मोल नहीं होता,
हिंदू मुस्लिम वाली हों तो तेज उछलती हैं।
ऐसी चन्द ज़ुबानों को खामोशी दे मौला,
टीवी पर जो नागिन बनकर ज़हर उगलती हैं।
— बृज राज किशोर “राहगीर”