(ना)मंज़ूर इश्क़
इश्क़ तो इश्क़ है,
चाहे वह किसी को भी हो जाए,
किसीपे भी हो जाए..
नस्ल, धर्म, उम्र, ओहदे, ये सब,
इश्क़ के आगे तो,
बस कुछ लफ़्ज़ ही रह जाते हैं।
ऐसा ही इक इश्क़,
हुआ मुझे भी,
तुमपे..
औ’ तुम्हें भी,
मुझपे..
करें तो क्या करें..?
जी की बात शक्ल से कैसे छुपायी जाए?
अँखियाँ मिल गयीं इक-दूजे की,
धड़कनें तेज़ हो गयीं दोनों के दिल की..
न कोई बैकग्राउंड म्यूज़िक बजा,
न किसीने दुआएँ दीं,
पर, हाँ,
आज भी ख़ूब चलता है हमारा इश्क़,
ख़ुदा के रहम से।
मेरा दिल बस यही माँगता है ख़ुदा से,
कि समाज के लिए नामंज़ूर,
पर हमारे लिए मंज़ूर,
किसीका कुछ भी न बिगाड़ने वाला,
हमारा यह सच्चा इश्क़ औ’ तुम्हें,
ख़ुदा हमेशा महफ़ूज़ ही रखें,
चाहे तुम मेरे साथ रहो या न रहो…