बालकहानी – इस बार की दीवाली
नरेश कक्षा आठवीं का छात्र था। उसकी दो बहनें थीं- जयंती और नंदनी। वह सबसे छोटा था। माँ-बाप खेती-किसानी करते थे। अल्प वर्षा के कारण इस साल फसल अच्छी नहीं थी। वैसे भी घर की आर्थिक स्थिति पहले से खराब थी। जैसे भी हो, बस गुजर-बसर हो रहा था।
दीपावली का त्यौहार आया। दीपावली की पूरी तैयारी हो गयी थी। नरेश के बाबूजी रघु बच्चों के लिए नये कपड़े नहीं ले पाये थे। नरेश सबसे छोटा था। इसलिए सब के आँखों का तारा था। इस बात का नरेश घर में पूरा – पूरा फायदा उठाता था। दीपावली की तैयारी में ही बहुत से पैसे खर्च हो चुके थे। नये कपड़े के लिए सोचना पड़ रहा था। रघु और उसकी पत्नी गीता मन ही मन सोच रहे थे कि थोड़ा सा घर में धान रखा है; मंडी ले जाते हैं, वो बिक जाये तो बच्चों के लिये कपड़े भी आ जायेंगे। रघु मंडी की तरफ गया और नरेश खेलने के लिए अपने दोस्त विनय के घर चला गया। विनय ने नरेश को अपना नया कपड़ा, फुलझड़ी, और बहुत सारे पटाखे दिखाते हुए पूछा – “तुमने कौन – कौन से पटाखे खरीदे हैं ? नरेश , चलो न तुम्हारे घर , मुझे तुम्हारे भी नये कपड़े और पटाखे देखने है।” नरेश झट से बोला – “आज शाम को मेरे बाबू जी नये कपड़े और पटाखे लायेंगे फिर तुम्हें दिखाऊँगा।” विनय बोला- “ठीक है भाई, इस बार दोनों साथ में मिलकर दीपावली मनायेंगे।”
नरेश को पता था कि घर की हालत अच्छी नहीं है। फिर भी रघु के पास गया और बोला- “बाबू, मुझे नये कपड़े चाहिये, विनय के पापा उसके लिए कपड़े और पटाखे भी ले आये हैं।” रघु नरेश की तरफ टुकुर-टुकुर देखने लगा। उसकी बहनें भी देखने लगीं , क्योंकि नरेश अलबेला भी था। वह मुँह बनाते हुए कह रहा था। जयंती और नंदनी दोनों बहनें घर की हालत समझती थीं। नंदनी को दीपावली के पहले ही खेल प्रतियोगिता में दो हजार रुपये मिले थे। नंदनी अपनी कॉपी में यह सोचकर दबा कर रखी थी कि दीपावली में नये कपड़े खरीदने के काम आएँगे। आज जब कॉपी ढूँढने लगी, तो वह कॉपी ही नहीं मिल रही थी। वह थोड़ी परेशान हो गयी थी। नरेश पूरे गांँव में घूम-घूम कर खेलता था। खेलते – खेलते अचानक देखा कि एक बुढ़िया बाजार में दीये बेचते-बेचते बेहोश हो गयी। नरेश, विनय और कुछ साथी उस बुढ़िया के पास गये और आवाज लगाई – “दाई , ओ दाई। फिर विनय ने बुढ़िया के मुँह पर पानी छिड़का। तब जाकर उसका होश आया। बच्चे खुश हो गये। नरेश दूसरों की मदद के लिए हमेशा आगे आ जाता था। सभी बच्चे बोले कि अब दाई को होश आ गया। चलो घर तरफ चलते हैं। नरेश कुछ समय चुप रहा, फिर बोला- “तुम लोग जाओ, मैं आता हूँ।”
विनय बोला- “क्यों…अब क्या हुआ ?”
नरेश ने कहा – मुझे उस दाई की मदद करनी है। चलो हम सब बैठकर दीये बेचते हैं।” सभी दोस्त हँसने लगे। उसकी खिल्ली उड़ाने लगे- “अरे नरेश, तू पागल हो गया है क्या ऐसे बाजार में बैठ कर हम दीये बेचेंगे। ना बाबा ना। मेरे घर वाले मुझे देखेंगे तो मेरा धनिया बो देंगे। मैं जा रहा हूँ।” कहते हुए विनय वहाँ से चला गया।
नरेश बुढ़िया के पास बैठ गया, और उसकी मदद करने लगा। सारे दीये बहुत ही जल्दी बिक गये। नरेश जा ही रहा था कि बूढ़िया ने नरेश का हाथ पकड़ा। बोली- “बेटा अपनी मेहनत की कमाई ले जा।”
नरेश- “नहीं…..नहीं….माँ जी। मैं नहीं ले जा सकता।”
बुढ़िया बोली- “घर में सिर्फ मैं बस रहती हूँ। मुझे इतने पैसे की जरूरत नहीं है बेटा। दीपावली का त्यौहार है। अपनी डोकरी दाई का ही आशीर्वाद समझ कर ले लो।” नरेश के मन में लड्डू फूटा। फिर उसे पाँच सौ रुपये मिल गये। नरेश फूला नहीं समा रहा था। नरेश और रघु दोनों एक साथ ही घर पहुँचे। दोनों के चेहरे में अनोखी मुस्कान थी। नरेश की माँ पूछ बैठी कि क्या बात है भाई, बाप-बेटे के चेहरे में इतनी खुशी है। बाजार में खजाना मिल गया क्या ..?” नरेश ने सभी को आपबीती सुनाई। रघु ने भी धान की बिक्री वाली बात बताई। सब बड़े खुश हुए, लेकिन नंदनी अभी भी परेशान थी। नरेश ने पूछा- “क्या हुआ दीदी, क्यों परेशान हो ?” नंदनी बोली- “मेरी नीले रंग की कॉपी नहीं मिल रही है।” नरेश बोला- “ओ ….! इतनी सी बात में परेशान हो रही हो। वो तो आलमारी में है।” नंदनी झट से बोली- दिखा, दिखा कहाँ है?” नरेश बोला- “इतना क्यों कूद रहे हो? मैं देख रहा हूँ, इसमें क्या है ?” फिर बोला- “दीदी, ये कॉपी में तो कुछ नहीं है। बिल्कुल खाली है।” नरेश की बातें सुनकर नंदनी के पैरों तले जमीन खिसक गयी। लेकिन नरेश मुँड़ी गड़िया कर दाँत दिखा रहा था, तो सब समझ गए कि नरेश मजाक कर रहा है। रघु ,नरेश और नंदनी तीनों ने अपने-अपने पैसे इकट्ठे किये। रघु के घर बूँद-बूँद में घड़ा भर ही गया। नए कपड़े, पटाखे, मिठाई व अन्य जरूरत के सामान खरीदे गये। खुशी-खुशी दीपावली मनाई गयी।
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टीप : *छत्तीसगढ़ी शब्द व मुहावरे का प्रयोग।*
धनिया बोना – भड़क जाना, डाँटना।
दाई – माँ।
डोकरी दाई – दादी।
मुँड़ी गड़ियाना – सिर नीचे करना।
दाँत दिखाना – जोर-जोर से हँसना।
— प्रिया देवांगन “प्रियू”