भाषा-साहित्य

हिन्दी

सम्पूर्ण विश्व के विद्वानों ने कालान्तर से ही हिंदी के महत्त्व और महत्ता को स्वीकारा है। यह हमारी विडम्बना ही कही जायेगी कि सम्पूर्ण विश्व में भारत की राष्ट्र भाषा के रूप में हिंदी का ही नाम लिया जाता है मगर अपने ही देश में आज़ादी के 75 वर्ष बाद भी हिंदी राजभाषा के पद पर ही स्थित है। अमेरिका के राष्ट्रपति श्री बराक ओबामा अपने देश में हिंदी के विकास के लिए साढ़े पाँच करोड़ अमेरिकी डॉलर का प्रावधान करते हैं तो वह हिंदी व हिन्दुस्तानियों के महत्त्व व सामर्थ्य को समझते हैं।
आज़ादी के आंदोलन में पूर्व से पच्छिम व उत्तर से दक्षिण सभी आंदोलनकारियों एवं नेताओं ने हिंदी के महत्त्व स्वीकारा था। हिंदी आज़ादी की प्रमुख भाषा बनी। विडम्बना ही कही जायेगी कि चंद स्वार्थी अंग्रेजी दा नेताओं के चलते राष्ट्र भाषा नहीं बन सकी।
भारत में अंग्रेजी के पक्षधर, विकास का मापदंड अंग्रेजी, विज्ञान का आधार अंग्रेजी, नौकरी के लिए अंग्रेजी का गुणगान करने वाले मैकाले के मानस पुत्र कुछ काले भारतीय जिनकी संख्या कुल 3-4 % होगी, से पूछना चाहता हूँ कि किस आधार पर अंग्रेजी का गुणगान करते हैं? आज भी सम्पूर्ण विश्व में अंग्रेजी बोलने-पढने-लिखने वालों की संख्या कुल 40 करोड़ है यानि विश्व जनसंख्या का केवल 4%, जबकि हिंदी बोलने- लिखने पढने व समझने वालों की जनसंख्या 190 करोड़ है जो कि विश्व में किसी भी भाषा को बोलने वालों में सर्वाधिक है।
एक बात उन लोगों के लिए जो अंग्रेजी को विश्व भाषा बताते हैं- अंग्रेजी दुनिया के केवल 40 देशों में ही बोली व समझी जाती है। जबकि हिंदी 175 देशों में अपने पाँव पसार चुकी है। दुनिया के 160 देशों में तो अंग्रेजी की कोई पहचान ही नहीं है। संयुक्त राष्ट्र की भाषा सूची में भी रुसी, स्पैनिज, फ्रेंच, डच, मंदारिन आदि में भी अंग्रेजी 12 वें पायदान पर है। विश्व के 175 देशों में हिंदी पढने, लिखने, सीखने बोलने की व्यवस्था है। हिंदी का शब्दकोष भी 250000 शब्दों का विशाल भण्डार है जो किसी एक भाषा का विश्व में सबसे बड़ा कोष है। अमेरिका में हावर्ड, पेन, मिशिगन, येल सहित 65 से अधिक विद्यालयों में हिंदी का पठन- पाठन व अनुसंधान जारी है। रूस में प्रारंभिक स्तर से विश्व विद्ययालय स्तर तक हिंदी अध्यन जारी है। बल्गारिया, फ़िनलैंड, डेनमार्क, जापान, चीन, नेपाल, बांग्लादेश, पाकिस्तान, मॉरीशस, सूरीनाम, त्रिनिदाद, टोबेगो, गुयाना, ब्रिटेन, जर्मनी, क्यूबा, कोरिया, किस-किस की बात करें सभी जगह के विश्वविद्यालयों में हिंदी के अध्ययनकेंद्र हैं। गीताप्रेस गोरखपुर की पुस्तकों की पहुँच वहाँ भी घर-घर तक है। अनेकों हिंदी पत्रिकाएं सभी देशों से प्रकाशित हो रही हैं। विश्व हिंदी न्यास, अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति, विश्व हिंदी समिति जैसी अनेक वैश्विक संस्थाएं विदेशों से ही संचालित हैं। रूस, अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, जापान, जर्मनी, आस्ट्रेलिया, चीन, स्वीडन, नार्वे, चेकोस्लोवाकिया, पोलैण्ड, हंगरी, हॉलैण्ड, आदि देशों ने अपने यहाँ हिंदी को विश्व भाषा के रूप में स्वीकार किया। और अपने यहाँ के नागरिकों को हिंदी पढने के लिए प्रेरित भी कर रहे हैं।
इतना सब कुछ होने के बावजूद हिंदी को भारत में राष्ट्र भाषा का तथा संयुक्त राष्ट्र में अधिकृत भाषा का दर्जा नहीं मिल पाने का प्रमुख एक मात्र कारण रहा है आज़ादी के बाद से देश सत्ता पर काबिज होने वाले अंग्रेजी पसंद राजनेता। वह राजनेता जिनकी शिक्षा-दीक्षा विदेशी परिवेश में हुयी, जिनका रहन-सहन और खान-पान विदेशी था, मानसिकता औपनिवेशवादी थी, जिन्होंने सत्ता की भाषा को जनता की भाषा से अलग रखा ताकि जनता उनके कार्यों में हस्तक्षेप न कर सके। बावजूद इसके हिंदी अपने गुणों, सामर्थ्य सम्प्रेषणीयता की सरल- सुबोध भाषा होने के कारण विश्व पटल पर अपना विस्तार करती रही।
हिंदी के प्रचार-प्रसार का जितना श्रेय इसकी सरलता- सहजता- सम्प्रेषणीयता को है उससे अधिक भारतीय सिनेमा व दूरदर्शन को है। यह भी आश्चर्यजनक है कि भारतीय हिंदी सिनेमा का विकास सभी अहिन्दी भाषी राज्यों हुआ है। हिंदी के विकास में अहिन्दी भाषी राज्यों द्वारा अपनाया गया त्रिभाषा सिद्धांत भी महत्वपूर्ण कड़ी रहा। वर्तमान में वैश्विक गाँव की परिकल्पना तथा बाज़ारवाद ने सम्पूर्ण विश्व को हिंदी प्रति आकृषित किया है।
— डॉ. अ. कीर्तिवर्धन