भाषा-साहित्य

अत्याधुनिकता की खाज और हिंदी

हिंदी एक संस्कृति है। भारतीयता के संस्कार का नाम हिंदी है। कालांतर में उसने एक बोली, भाषा और साहित्य के उच्च स्थान को प्राप्त कर लिया है। वैदिक भाषा ‘छांदस’ से लेकर संस्कृत, पालि, प्राकृत और अपभ्रंश के अनेक सोपानों को पार करती हुई यह ‘हिंदी’ के वर्तमान स्वरूप को प्राप्त हुई है। हिंदी की अनेक बोलियों यथा: ब्रजभाषा, अवधी, मैथिली, भोजपुरी आदि ने बोलियों के स्तर से ऊपर जाकर साहित्य के उच्च आसन को प्राप्त किया। किन्तु मेरठ और हस्तिनापुर के आसपास की ही एक बोली :खड़ीबोली ने आज उच्च साहित्यिक मंच पर अपनी उपस्थिति अंकित कराई है। यह खड़ीबोली हम भारतीयों के गर्व औऱ गौरव की अनुभूति कराने के लिए रष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए एक विशेष माध्यम है।

समय -समय पर देश की सामाजिक और राजनैतिक उठा -पटक और परिवर्तनों के कारण भाषा में भी परिवर्तन हुए जो आज भी निरन्तर हो रहे हैं। इन परिवर्तनों के कारण हिंदी में उर्दू,अरबी, फारसी, पुर्तगाली,लैटिन, अंग्रेज़ी आदि अनेक भाषाओं के शब्दों का समावेश हुआ और निरन्तर हो रहा है। किसी भाषा की समृद्धि और विकास के लिए नए -नए शब्दों की वृद्धि उचित है, किन्तु यदि सीमा का अतिक्रमण करते हुए वह मूल भाषा के लिए विकृति बन जाय, तो यह सर्वथा अनुचित ही है। देश में चल रही पाश्चात्य सभ्यता की होड़ और अपनी सभ्यता और संस्कृति की अनदेखी भाषा औऱ संस्कृति के लिए विशेष घातक है।

आज देश की हिंदी भाषी क्षेत्रों की अति आधुनिकाएँ अपने बच्चों को पैदा होते ही अंग्रेज बनाने में जुट जाती हैं। हिंदी बोलना और पढ़ना उनकी दृष्टि में पिछड़ापन है। इसलिए वे अपने बच्चों को अंग्रेज़ी के कुछ शब्द बोलने की आदत डालने में रात-दिन एक करने में लगी हुई हैं। उनको स्वयं न तो ढंग की हिंदी आती है और न अंग्रेज़ी ही। कौवे को क्रो, कुत्ते को डॉग, बिल्ली को कैट, सिखाकर मानने लगती हैं कि वह अंग्रेज बन गया। स्वयं ‘लेकिन’ के लिए ‘बट’ बोलकर बहुत गर्व की अनुभूति उन्हें होती हैं। हिंदी को विकृति की ओर ले जाने का 80प्रतिशत दायित्व इन्हीं आधुनिकाओं का है, अब पतिदेव बेचारे कैसे पीछे रह सकते हैं, इसलिए वे भी सहधर्मिणी के साथ भाषा -शिक्षण -धर्म निभाना अपना परम दायित्व समझते हुए सह -शिक्षक बन जाते हैं। हैड मास्टरनी का दर्जा तो उनसे कोई छीन नहीं सकता, क्योंकि उन्हें ज्यादा अंग्रेज़ी आती है!

इन आधुनिकाओं की दृष्टि में यदि उनके बच्चे अंग्रेज़ी में गिटपिट नहीं कर लेंगे, तब तक उनकी समाज में ‘प्रेस्टीज’ ही क्या रह जायेगी? उनके लिए हिंदी की खिचड़ी खाना और बच्चों को खिलाना प्रतिष्ठा का विषय है। उन्हें हिंदी आती भी नहीं औऱ घृणा भी करती हैं। इसलिए वे बच्चों से क्विकली ब्रेकफास्ट ईट करने के लिए कहती हैं। ऐसी खिचड़ी देख और सुनकर हँसी भी आती है और आत्मिक कष्ट भी होता है कि देश कहाँ जा रहा है। कुछ लोगों को मेरी इस बात से आपत्ति हो सकती है लेकिन 200 परिवारों का सर्वेक्षण करने के बाद यह बात दावे से कह सकता हूँ कि इस बिंदु पर 80 प्रतिशत अति आधुनिकाएँ ही अग्रणी हैं और फिर नर से भारी नारी। अपने बच्चों को बनाने -बिगाड़ने में जो भूमिका माँ की है, वह स्थान कोई भी नहीं ले सकता।

खाज खुजाने में किसे आनन्द नहीं आता ? हिंदी में लगी हुई अंग्रेज़ी खाज आधुनिकों को बहुत आनन्द की अनुभूति करा रही है। जितना भी खुजाओ उतना आनन्द पाओ। कहावत है :’घर की खांड खुरखुरी लागै……’ इसी प्रकार जब नौनिहालों के मुँह से खिचड़ी टपकने लगती है, तो माताओं का सिहाना स्वाभाविक है। देखा -देखी पिताश्री भी खुश हो लेते हैं, कि चलो बच्चे अपनी संस्कृति और भाषा को ठेंगा दिखा रहे हैं। ज्ञानवर्द्धन के लिए किसी भी भाषा को सीखना बुरा नही है। लेकिन अपनी संस्कृति औऱ भाषा को नीचा दिखाकर उसे अपदस्थ करना एक सच्चे नागरिक के लिए निंदनीय है, हेय है, त्याज्य है। जो व्यक्ति अपनी भाषा और संस्कृति का सम्मान करना नहीं जानता, उसके लिए ऐसे कृत्य शर्मनाक हैं। वे अपनी भाषा,संस्कृति, राष्ट्रीयता, एकता, अखण्डता और संगठन के शत्रु हैं। वे सच्चे नागरिक भी नहीं हैं, तो अच्छे देशभक्त कैसे हो सकते हैं!

— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’

*डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

पिता: श्री मोहर सिंह माँ: श्रीमती द्रोपदी देवी जन्मतिथि: 14 जुलाई 1952 कर्तित्व: श्रीलोकचरित मानस (व्यंग्य काव्य), बोलते आंसू (खंड काव्य), स्वाभायिनी (गजल संग्रह), नागार्जुन के उपन्यासों में आंचलिक तत्व (शोध संग्रह), ताजमहल (खंड काव्य), गजल (मनोवैज्ञानिक उपन्यास), सारी तो सारी गई (हास्य व्यंग्य काव्य), रसराज (गजल संग्रह), फिर बहे आंसू (खंड काव्य), तपस्वी बुद्ध (महाकाव्य) सम्मान/पुरुस्कार व अलंकरण: 'कादम्बिनी' में आयोजित समस्या-पूर्ति प्रतियोगिता में प्रथम पुरुस्कार (1999), सहस्राब्दी विश्व हिंदी सम्मलेन, नयी दिल्ली में 'राष्ट्रीय हिंदी सेवी सहस्राब्दी साम्मन' से अलंकृत (14 - 23 सितंबर 2000) , जैमिनी अकादमी पानीपत (हरियाणा) द्वारा पद्मश्री 'डॉ लक्ष्मीनारायण दुबे स्मृति साम्मन' से विभूषित (04 सितम्बर 2001) , यूनाइटेड राइटर्स एसोसिएशन, चेन्नई द्वारा ' यू. डब्ल्यू ए लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड' से सम्मानित (2003) जीवनी- प्रकाशन: कवि, लेखक तथा शिक्षाविद के रूप में देश-विदेश की डायरेक्ट्रीज में जीवनी प्रकाशित : - 1.2.Asia Pacific –Who’s Who (3,4), 3.4. Asian /American Who’s Who(Vol.2,3), 5.Biography Today (Vol.2), 6. Eminent Personalities of India, 7. Contemporary Who’s Who: 2002/2003. Published by The American Biographical Research Institute 5126, Bur Oak Circle, Raleigh North Carolina, U.S.A., 8. Reference India (Vol.1) , 9. Indo Asian Who’s Who(Vol.2), 10. Reference Asia (Vol.1), 11. Biography International (Vol.6). फैलोशिप: 1. Fellow of United Writers Association of India, Chennai ( FUWAI) 2. Fellow of International Biographical Research Foundation, Nagpur (FIBR) सम्प्रति: प्राचार्य (से. नि.), राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, सिरसागंज (फ़िरोज़ाबाद). कवि, कथाकार, लेखक व विचारक मोबाइल: 9568481040