सिसक रहा ईमान
आलय -आलय रिक्त पड़े हैं, सिसक रहा ईमान।
दूकानें बाजार माँगते, ला- ला धर जा पैसा,
अधिकारी ऑफिस के बाबू, कहते समय न वैसा,
सुविधा – शुल्क जरूरी, चले लेखनी पूरी,
खिसक रहा ईमान।
तिलक लगाए माला डाले, बैठा सजा पुजारी,
दर्शन करना भक्त बाद में, दे न दक्षिणा प्यारी?
आशीष तभी दूँगा, पहले तुझसे लूँगा,
बिखर रहा ईमान।
साइकिल पर चलने वाला, अब कारों में घूमे,
नेता बना अरब का स्वामी, नित्य षोडशी चूमे,
देशभक्त कहलाता,बगुला -वेश सुहाता,
छितर रहा ईमान।
अवसर मिला न जिसको कोई वही दूध का धोया,
चोरों की नगरी में बैठा, कहीं अकेला सोया,
उसे न ए. सी.कारें, कैसे घर को तारें,
पिचक रहा ईमान।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम्’