संत गाड्गे जी महाराज:एक संपूर्ण दस्तावेज
समीक्षक
सुधीर श्रीवास्तव
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बुन्देलखण्ड की गौरवशाली उर्वराभूमि से आच्छादित उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले के प्रतिष्ठित हस्ताक्षर वरिष्ठ साहित्यकार रामकरण साहू “सजल” जी ने अपने दूरदर्शी सोच को धरातल पर उतारने के क्रम में गौरवशाली परम्परा के पुरोधा “सन्त गाडगे जी महाराज” महाकाव्य का सृजन कर अपनी लेखकीय विशिष्टता और दूरदर्शी सोच का परिचय दिया है।
वैसे तो मेरा मानना है कि सन्तो, महात्माओं, ज्ञानियों और महापुरुषों पर चाहे जितनी लेखनी चलती रहेगी, शेष भी उतना जरूर बना ही रहेगा।
“सजल” जी ने रुढ़िवादिता के प्रबल विरोधी, मानवीय मूल्यों के समर्थक, सन्त प्रवत्ति के महनीय आत्मवाहक सन्त जी के सम्पूर्ण जीवनगाथा का अपने काव्यात्मक सृजन से जनमानस को आच्छादित करने का अपने सम्पूर्ण ज्ञान और उपलब्ध जानकारियों के आधार पर करने का स्व अलाभ का प्रयास किया है।
महाकाव्य को अपने पिताजी स्व. श्रीकृष्ण साहू जी को समर्पित करते हुए कवि ने सगर्व स्वीकार किया है कि उन्होंने ही मुझे में धैर्य, शक्ति, ऊर्जा, नवचेतन, संबल संस्कार देकर इस योग्य बनाया कि वे अपनी बात रख सकें।
“सजल” जी का मानना है कि “गाड्गे जी महाराज” जन-जन के थे। जो जन-जन की मन: पीड़ा से सहम जाते थे और उनके कष्टों के निवारण में जुटे रहते थे।
मंगलाचरण में भारत वैभव शीर्षक से सम्पूर्ण भारत के वैभव को अपने अद्भुत विशिष्ट भावों के शब्द चित्रों से शानदार ढंग से बखान किया है।
अंतिम चार पंक्तियाँ में उनके सरल, सहज, सजल व्यक्तित्व की झलक को रेखांकित करना अपरिहार्य है:-
जो विश्व धरा में भारत का,
गौरव इतिहास लिखाता है।
उनके चरणों में ‘सजल’ शीश,
रख अपनी कलम चलाता है।
पहली किरण में सन्त जी के बचपन का चित्रण करते हुए कवि की चार पंक्तियों
“मानवता झलक रही उन पर,
कुछ द्वैष नहीं उनके मन में ।
सब में अपनेपन की चाहत,
था नहीं भेद जिनके तन में” ।।
उनके समूचे व्यक्तित्व का चित्रण कर दिया।
दूसरी किरण में बालपन, विवाह और साहूकारी की विसंगतियों का चलचित्र समान चित्रण धारा प्रवाह बहता प्रतीत होता है।
तीसरी किरण में कवि ने साहूकार के पास बन्धक खेती की जलालत, बेबसी, पारिवारिक परिस्थितियों से होते हुए शराब और मांसाहार की रुढ़िवादी परम्परा को बन्द कराने, सामाजिक समरसता, ऊँच-नीच की दीवार ढहाने और साधू से मिलने की बेचैनी का सजीव सा वृत्तांत सामने रखा है।
इसी क्रम में चौथी किरण में डेबू के डेबीदास बनने और गृह त्याग और उसके बाद की परेशानियों का खूबसूरत अंदाज में यथार्थ भाव का दर्शन कराया है।
पाँचवी किरण में गृहत्याग के बाद उनके सन्त बनने की राह पर आगे बढ़ने और डेबू जी के सन्त गाड्गे बनने, उनके सन्देशों और वैराग्य जीवन का विस्तार से वर्णन आँखों के सामने चलचित्र जैसा चित्रण किया गया है।
चार पंक्तियां जो काफी कुछ कहने के लिए पर्याप्त हैं कि —–
जनहित की सेवा में रहते,
वह परमारथ के काम करें।
हर ओर सफाई वह करते,
दुखियों के सारे दर्द हरे।।
छठी किरण में रचनाकार ने गाड्गे जी महाराज के व्यक्तित्व, कृतित्व और सन्तीय अवधारणा के वैश्विक स्वरुप को अपनी लेखनी के माध्यम से प्रस्तुत कर जैसे शब्दों को आधार बना सामने ला दिया है।
सातवीं किरण में सजल जी ने
सन्त जी के द्वारा जन जागरण, सन्देशों और जागरूकता के उद्वेलित करने और स्वयं सतपथ पर निश्छल, निर्मल भावों और स्वयं आगे बढ़कर गरीबों, मजलूमों की सेवा सुश्रुवा और सहायता करने, खुद को अति सामान्य मानने और स्वकर्म करते रहने का अति सुन्दर विवेचन किया है ——
अपने तन को वह ईश्वर का ,
पावन प्रसाद माना करते।
कहते ये भवन किराए का,
हर क्षण उपयोग किया करते।।
आठवीं किरण में कवि ने महिलाओं में रुढ़िवादिता और पुरुषों में मदिरापान के खिलाफ जागरूकता फैलाने, वर्धा मे गाँधी जी से भेंट और गरीब, निर्बल और असहायों के लिए भिक्षाटन भी जीवन दर्शन के साथ करने और किसी को अपमानित उपेक्षित न करने मस्त मलंग ढंग से उनकी दिनचर्या का वर्णन किया है।
नौवीं किरण में सन्त जी की बाबा साहब अम्बेडकर से भेंट, उनके धर्म परिवर्तन पर चर्चा और बीमारी के बाद भाव भी अपने कर्म पथ पर उनकी अड़िगता के प्रसंगों को उद्धरित किया गया है।
दसवीं किरण में सन्त जी की बीमारी के बाद उनके कहीं भी, कभी भी चलते रहने का वृत्तांत और अम्बेडकर जी की मृत्यु का समाचार पाकर वहाँ जाने का विस्तार से वर्णन किया गया हैं।
……और अन्त में ग्यारहवीं किरण में उनके महाप्रयाण और अंतिम संस्कार का सहजता से जीवंत चित्रण आँखों को नम कर ही देता है। निम्न पंक्तियों से सन्त गाड्गे जी की महानता को इंगित करते हुए सजल जी लिखते हैं-
हम सन्त शिरोमणि को करते,
हैं कोटि कोटि झुककर प्रणाम।
वह आज हृदय में सबके हैं,
सबके सम्मुख नयनाभिराम।।
ग्यारह किरणों में समाहित महाकाव्य की सबसे विशेष बात जिसने मन मोहक चुम्बकीय आकर्षण है, वो है प्रत्येक किरण से पहले पूर्वाभास पर प्रत्येक किरण का सार मिलता है।जिससे पाठकों को उस किरण की व्यापकता का सहज अंदाजा मिल जाता है।
भगवान श्रीकृष्ण को आराध्य मानकर मस्तमौला गाड्गे जी कबीर और तुकाराम के पदचिन्हों पर चलते हुए सारी दुनिया को सन्देश दे गए । जो निश्चित ही ईश्वरीय कृपा के बिना सम्भव नहीं है।ऐसे महान व्यक्तित्व की जितनी चर्चा, परिचर्चा की जाय, चाहे जितने काव्य, महाकाव्य, ग्रंथ लिखे जायें, कम ही होगा।
रंगमंच प्रकाशित भोपाल द्वारा प्रकाशित “संत गाडगे जी महाराज” महाकाव्य पठनीय ही नहीं अपितु संग्रहणीय, जनोपयोगी भी है।
ऐसे सृजित महाकाव्य को शासन, सत्ता को बढ़ावा दिया जाना चाहिए, सकूल, कालेज पर ही नहीं स्वतंत्र पुस्ताकालयों में भी पहुंचे, ऐसी व्यवस्था सुनिश्चित कर सन्तो की वाणी और सन्देश सहित उनकी जीवनगाथा नई पीढ़ी तक पहुँचाने की प्रणाली विकसित करे तो देश और समाज का भला ही होगा।
बतौर पाठक मेरा मानना है कि आदरणीय “सजल” जी की साहित्यिक यात्रा मील का पत्थर साबित होने की ओर तेजी से अग्रसर हैं।
….. औरअन्त में सिर्फ इतना कि—
सन्त गाड्गे महाकाव्य लिखना साहस है
आपकी लेखनी का ये जादू सजल है,
सार्थक प्रयास आपको मुबारक “सजल”
ये सन्त का आशीष सिर पर आपके है।
अज्ञानी बन आपने सौंप दिया सौगात जन को,
जीवंत कर दिया शब्दों से सन्त गाड्गे जी को,
टूटा-फूटा जो रचा है आपने अपनी कलम से
सन्त श्रेष्ठों की कृपा “सजल” मिलती रहेगी आपको।
” सन्त गाडगे जी महाराज” महाकाव्य की सफलता की शुभकामनाओं के साथ “सजल” जी को बधाइयाँ।