लघुकथा – समय से पहले
आज सुभाष बाबू के पोते का अन्नप्राशन है। इसलिए “गुप्ता -परिवार” में काफी चहल -पहल है, परंतु सुभाष बाबू की दीदी गुमसुम- सी एक कोने में बैठी हैं।… शादी के आठ साल बाद भी बहू के माँ नहीं बन पाने पर उसने साफ-साफ कह दिया था- “बहू बांझ है। बेटे की दूसरी शादी करा दो भाई । वंश आगे तभी बढ़ेगा।” अब वह किसी से आँखें भी नहीं मिला पा रही हैं।
“दीदी, तुम भी थोड़ी मदद कर दो…देर हो रही है।” सुभाष ने कहा।
“तुम्हारी पत्नी रेखा और तुम्हारी बहू ने मिलकर विधि विधान की सारी तैयारियाँ कर ली है।अब मेरा क्या काम?” पचास वर्षीया रानी ने भाई सुभाष को जवाब दिया। दरअसल वह समझ नहीं पा रही थीं कि वह बहू की नजरों का सामना कैसे कर पाएँगीं।
अपनी दीदी की उदासीनता और असहजता देख सुभाष बाबू ने पाकशाला में जाकर अपनी पत्नी को धीरे से कहा—” दीदी के मन पर बोझ है। उन्हें हल्का करना होगा।”
रेखा ने बहू की ओर देखा। मानो कह रही हों-‘ दीदी तो तुम्हारी गुनाहगार है बहू!’
“बाबूजी आप निश्चिंत रहें। बुआजी को मैं देखती हूँ।” तीस वर्षीया बहू ने कहा। वह चहकते हुए बुआ के पास गई और उनका चरण स्पर्श करते हुए हँसकर बोली, “बुआजी! आशीर्वाद दीजिए।… मुझे आप से कोई गिला-शिकवा नहीं है। चलिए… मम्मीजी रसोईघर में आपका इंतजार कर रही हैं।”
— निर्मल कुमार दे