कविता

पापाजी

पापाजी जब से सेवानिवृत्त हुये, परिवार हो गये,
सारे परिवार की ज़रूरतों का, वे आधार हो गये।
सुनसान घरों के चौकीदार, बच्चों के लिये घोड़ा,
बहुओं के लिये बैंक, रिश्तों के व्यवहार हो गये।
याद आने लगे सब रिश्तेदार, तन्हाई से बचने को,
अब व्यस्त रहने को, समाज के कर्णधार हो गये।
कहते थे अपने ही कंजूस, धन पर कुंडली बताते,
खुले हाथ से खर्च करते, सबको स्वीकार हो गये।
— अ कीर्ति वर्द्धन