एकात्म मानववाद के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय
पंडित भगवती प्रसाद उपाध्याय भारतीय संस्कृति और परम्परा का निर्वहन करने वाले महापुरुष थे उन्हीं के घर, मथुरा जनपद के नगला चंद्रभान में बालक दीन दयाल का 25 सितम्बर 1916 को जन्म हुआ । बालक दीन दयाल की मेधा बचपन से ही प्रबल थी उसने हाईस्कूल से स्नातक तक सभी शैक्षिक परीक्षाएं प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करीं। दीनदयाल जी छात्र जीवन में ही संघ विचारधारा में प्रवृत्त हो गये। उन्हें संघ संस्थापक डा. केशवराव बलिराम हेडगेवार तथा प्रचारक भाऊराव देवरस व का सानिध्य भी प्राप्त हुआ। वे छात्रावास में लगने वाली शाखा में वे प्रतिदिन जाते थे तथा इसी समय से उनका तन, मन और धन पूरी तरह से देश के लिए समर्पित हो गया। दीनदयाल जी सामान्य गृहस्थ जीवन की तुलना में देश सेवा में समर्पित जीवन को श्रेष्ठ मानते थे।
दीनदयाल जी जीवन को पूरी रचनात्मक त्वरा और विष्लेषणात्मक गहराई्र के साथ जीते थे यही करण है पत्रकार और लेखक के रूप में उनके द्वारा लिखा गया एक एक वाक्य आज भी उपयोगी है। पंडित दीन दयाल जी ने राजनैतिक लेखन को भी दीर्घकालिक विषयों से जोड़कर अपने रचना कार्य को कालजयी बनाया है।
दीन दयाल जी के वृहद रचना कोष में एकात्म मानववाद, लोकमान्य तिलक की राजनीति, जनसंघ का सिद्धांत और नीति राष्ट्र जीवन की समस्याएँ , राष्ट्रीय अनुभूति, कश्मीर, अखंड भारत, भारतीय राष्ट्रधारा का पुन: प्रवाह, भारतीय संविधान, उनको भी आजादी चाहिए,अमेरिका अनाज, भारतीय अर्थनीति, विकास की एक दिशा,बेकारी समस्या और हल, टैक्स या लूट, विश्वासघात दि ट्रू प्लान्स आदि प्रमुख हैं । उन्होंने बहुत कम समय में ही सम्राट चन्द्रगुप्त जैसे चरित्र पर पुस्तक लिखकर भारतीय इतिहास के एक सांस्कृतिक निष्ठा वाले राज्य का चित्रण किया। उनके लेखन का केवल एक ही लक्ष्य था भारत की विश्व पटल पर निरंतर प्रतिष्ठा और विजय। उन्होनें संघ की अनेक पत्र- पत्रिकाओं का लम्बे समय तक संपादन भी किया। जिसमें लखनऊ से प्रकाशित राष्ट्र धर्म व दिल्ली से प्रकाशित पांचजन्य प्रमुख हैं। वे एक ऐसे महान कर्मयोगी थे कि पत्र को समय पर निकालने के लिये उन्होंने रातभर कम्पोजिंग का कार्य किया। निश्चित रूप से दीनदयाल जी शब्द और कृति की एकात्मकता के सर्जक थे।
पंडित जी ने एकात्म मानववाद और अन्त्योदय जैसे श्रेष्ठ विचार व्यक्त दिए जो आज के युग में भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने उस समय थे। एकात्म मानववाद पर उनका कहना था हमारे यहां समाज को स्वयंभू माना गया है । राज्य एक संस्था के नाते है। राज्य के समान और संस्थाएं भी समय- समय पर बनती हैं प्रत्येक व्यक्ति इनमें से प्रत्येक संस्था का सदस्य होता है। पंडित जी की तत्व दृष्टि थी कि सम्पूर्ण विश्व के समक्ष उपस्थित मार्ग विभ्रम का उत्तर भारतीय संस्कृति में है। भारतीय संस्कृति समग्रतावादी है। यह सार्वभौमिक भी है। पश्चिम की दुनिया में हजारों वाद हैं। पूरा पश्चिमी जगत विक्षिप्त है। पश्चिम में सुस्पष्ट दर्शन का अभाव है। वही अभाव वहां के समाज को भारत की ओर आकर्षित करता है। अमरीका का प्रत्येक व्यक्ति आनंद की प्यास में भारत की ओर टकटकी लगाये हुये है। भारतीय दर्शन सम्पूर्ण सृष्टि रचना में एकत्व देखता है इसीलिए भारतीय संस्कृति सनातन काल से एकात्मवादी है।पण्डितजी के अनुसार सृष्टि के एक- एक कण में परावलम्बन है। भारत ने इसे ही अद्वैत कहा है। भारत ने सभ्यता के विकास में परस्पर सहकार को ही मूल तत्व माना है।
दीनदयाल जी भारतीय जनसंघ के शिखर पुरुष थे। उन्होनें अपने लेखों व भाषाओं में राजनीति में शुचिता पर भी बल दिया है। विश्व मानवता को भारत की पुण्य धरती के लाखों लाख ऋषियों के ज्ञान का तत्व एकात्म मानव दर्शन के रूप में पहुंचने वाले पंडित दीनदयाल उपाध्याय की रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु हुई और उनका शव मुगलसराय रेलवे स्टेशन से प्राप्त हुआ। अब मुगलसराय स्टेशन पंडित दीनदयाल उपाध्याय के नाम से जाना जाता है।
— मृत्युंजय दीक्षित