संभ्रम
मनीषा लैपटॉप पर लघुकथा लिखने में व्यस्त थी. यह व्यस्तता शारीरिक भी थी और मानसिक भी. ऐसे में किसी तरह की आवाज तथाकथित एकाग्रता में खलल डालने जैसी होती है.
सहसा एक मधुर-मधुर घंटी की आवाज ने उसका ध्यान भंग किया.
“कहां से आ रही है यह आवाज!” वह हैरान थी.
घर में कोई छोटा बच्चा भी नहीं, जो खिलखिलाने या खिलौने से कोई आवाज करे!
लैपटॉप का वॉइस बटन जीरो पर है.
मोबाइल शांत पड़ा हुआ है.
टी.व्ही., रेडियो, रिकॉर्ड प्लेयर सब मौन हैं.
“फिर ये आवाज!” वह इधर-उधर देखने लगी.
उठकर घर का एक चक्कर भी लगा आई.
आवाज उसके साथ-साथ चल रही थी.
“धत तेरे की! बाएं कान की हीयरिंग एड की बैटरी डाउन हो गई है!”
“कस्तूरी मृग को भी कस्तूरी की महक से ऐसा ही संभ्रम होता होगा!” उसको समझ में आ गया था.
उसने उस समय संभ्रम को डिब्बी में कैद करना ही उचित समझा!